Sunday 16 March 2008

एक संस्कृत - कुमाऊँनी सायरी

बचपन में हमारे पिताजी के एक सहकर्मी निम्नलिखित सायरी सुनाया करते थे। इसे सुना कर वे इस कदर हंसते थे की उन की आंखों से आंसू आ जाया करते। उन्हें हंसते देख कर हमारी हँसी फूटना भी लाजिम था। दया सिंधु भगवान् से लेकर मनुष्य व मनुष्येतर जीवों का ज़िक्र इस सेर में होता है। सही अर्थ तो मुझे अब भी नहीं आता, अलबत्ता मुश्किल लफ़्ज़ों के मायने दे रहा हूँ:

यस्य ज्ञान दयासिंधो, लगा धका, घुरी पड़ा
यौ बाछी बाघे लै मारी, तुम मुयाँ मुयीं तसिकै मरा।

*घुरी पड़ा : गिर पड़ा
बाछी :बछिया
मुयाँ मुयीं : छोकरे- छोकरियाँ
तसिकै : इसी भांति