Monday, 3 March 2008

न ये ज़मीं के लिये है न आसमाँ के लिये

ये ज़मीं के लिये है आसमाँ के लिये

ये मकीं के लिये है मेहरबाँ के लिये

ये और बात, लपेटे में कोई जाए

बना है पोटा, तजम्मुल हुसेन ख़ाँ के लिये.

1 comment:

झालकवि 'वियोगी' said...

जमीं को, आसमान को लपेट ही जो लिया
फिर भला कैसे मेहरबां निकल के जायेंगे
हुसेन खाँ की केवल बात क्यों करें हैं मियाँ
शेर तो भारी ही पड़ा मेरी भी जाँ के लिए