Sunday, 2 March 2008

साग़र खैय्यामी साहब फ़िर फ़रमाते हैं-

मंजन घिसा था जिनपे चमकने की आस में
रक्खे हुए हैं दांत वही अब गिलास में.

3 comments:

विजयशंकर चतुर्वेदी said...

उम्दा शेर पर घटिया दाद का नमूना पेश है-
वाआआआआआआअह्, वाआआआआअह्, वाआआआआआअह्!!!!!!!!!!! कलेजा फाड़ कर दिया. स्टडी का शेर है. हाआआआय्, हाआआआआय् अमेरिका की नेस्तानाबोदी का शेर है! ऐसा शेर न कभी हुआ था न कभी होगा!!!!!!!!!! बाकमाल लिखा है. ज़बान छीन ली!!!!!!!!!!!!!!!!!!! आय-हाय-हाय! सूरज की रोशेनी धरती पर पहुँचने का दस शंख गुना!!!!!!!!!!!!

विजयशंकर चतुर्वेदी said...

तड़प रहे हैं अपनी सस्ती दाद देखकर
गुमान है एक दिन यकीन आयेगा मियां

Joshim said...

क्या दाद है मान्यवर - [ राजा दाद मलहम की याद दिला दी (:-) ]
मांज कर गिलास, भर बोतल के पास में
मौसम वो लौट आएँगे, अगली ही साँस में
-मनीष