Friday 14 March 2008

अफ़सोस कि अफ़सोस नहीं है

चाचा गालिब से माफी मांगना जरूरी हो तो ये काम मेरी और से इरफान भी कर लें. हम चूंकि पेटेंट का कानून आने के पहले से उनकी बौद्धिक सम्पदा के नकली वारिस हैं, लिहाजा नक़ल करना और वो भी अक्ल से हमारा मौलिक हक़ है. हम यही मान कर यह कर रहे हैं. आगे जिसे जो करना हो कर ले :

गिरिया निकाले है तेरी बोतल से किसको

हाय! कि पीने पे इख्तियार नहीं है

हमको बहुत है बोतल न हो तो अद्धा-ऐ-क्वाटर

अफसोस कि साथ देने को कोई तैयार नहीं है.

2 comments:

Shiv Kumar Mishra said...

साथ लेने के बहाने साथ देने को कहें
सादगी ये देख उनकी कौन न मिट जायेगा
आज बैठें लेके बोतल गर हमारे 'इष्ट देव'
साथ तो देगा वही जो साथ में टिक पायेगा

Anonymous said...

साथ टिकने के लिए
हाथ नहीं चाहिए
गियर टॉप चाहिए
पहले गियर में तो
फ्लाप ही जाएगा
जो डगमगाया
वही गियर टॉप
नजर आएगा.