Thursday, 25 December 2008

ये दिल है, ये जिगर है, ये कलेजा..

मुशायरे में एक शायर ने अपना क़लाम सुनाते हुए पढा-

"ये दिल है, ये जिगर है, ये कलेजा"

गौर फ़रमाएं-

"ये दिल है, ये जिगर है, ये कलेजा",

"ये दिल है, ये जिगर है, ये कलेजा",


लोगों में से किसी ने आवाज़ उठाई-


"खस्सी लाया है सौगात क्य-क्या"

Wednesday, 17 December 2008

बुढ़ापे की ग़ज़ल!!

ऐसा नहीं के उनसे मोहब्बत नहीं रही
जज़्बात में वो पहले सी शिद्दत नहीं रही

सर में वो इन्तज़ार का सौदा नहीं रहा
दिल पर वो धड़कनों की हुकूमत नहीं रही

पैहम तवाफ़-ए-कूचा-ए-जाना के दिन गये
पैरों में चलने फिरने की ताक़त नहीं रही

कमज़ोरी-ए-निगाह ने संजीदा कर दिया
जलवों से छेड़-छाड़ की आदत नहीं रही

चेहरे की झुर्रियों ने भयानक बना दिया
आईना देखने की भी हिम्मत नहीं रही

अल्लाह जाने मौत कहां मर गई 'ख़ुमार'
अब मुझको ज़िंदगी की ज़रूरत नहीं रही

-- ख़ुमार बाराबंक्वी

Saturday, 29 November 2008

यकीन है इक रोज़ जायेगी जान दिल्ली में...

यकीन है इक रोज़ जायेगी जान दिल्ली में,
तलाश करते हुए एक मकान दिल्ली में,
तमाम दिन के सर-ए-राह हम थके हारे,
शिकम में चूहे उछलते थे भूख के मारे,
बड़ा था मेरा शिकम,दोस्तों मैं क्या करता,
रकम थि जेब में कम,दोस्तों मैं क्या करता,
चला खरीद के तरबूज सू-ए-दश्त-ए-हक़ीर्,
लगी जो पाँव में ठोकर, सँवर गयी तक़दीर,
गम-ए-हयात की रातों में दिन निकल आया,
गिरा जो हाथ से तरबूज,जिन्न निकल आया,
अदब से बोला कि अदना ग़ुलाम हूँ आका,
जो हो सके ना किसी से करूँ वो काम मैं आका,
इशारा हो तो मैं रुख मोड़ दूँ ज़माने का,
बना दूँ तुमको मैनेजर यतीम-खाने का,
मेरे सबब से लतीफ़ा मुशायरा हो जाए,
पलक झपकते में शायर,शायरा हो जाये,
गुनाह-ओ-शिर्क कि रातों में आफ़ताब मिले,
इबादतें करें मुल्ला, तुम्हें सवाब मिले,
मैं आदमी नहीं,दुश्मन से साज़ बाज़ करूँ,
अगर मैं चाहूँ तो अहमक़ को सरफ़राज़ करूँ,
जो हुक़्म कीजे तो मुर्दे में जान डलवा दूँ,
मैं अह्द-ए-पीरि में, बीवी जवान दिलवा दूँ,
बजाएं सीटियाँ अब तल्खियाँ ज़माने की,
ये पकड़ो कुन्जियाँ क़ारूँ के खज़ाने की,
"नहीं है दिल की तमन्ना जहान दिलवा दे"
मैं हाथ जोड़ के बोला मकान दिलवा दे,
यह कह के घुस गया तरबूज में वो काला जिन्न,
अजीब वक़्त है बिगड़े हुए हैं सब के दिन,
ये सर्द-सर्द फ़िजाओं के गम यूँ ना सहते हम
मकान जो मिलता तो भला तरबूज में क्यूँ रहते हम?

Thursday, 13 November 2008

दुनिया अपने को बहुत सता रेली है...

दुनिया अपने को बहुत सता रेली है,
बात बात पे अपनी हटा रेली है,
जूली माल तो अपना खाती है,
पर सुना है पप्पू को घुमा रेली है,

कितना भी पी लो साला चढती ही नही,
दारू भी डुप्लीकेट आ रेली है,
मटके का माल भर के बोतल में,
मक्डावेल का लेबल आंटी लगा रेली है,

पुलिस भी जब दिल करे उठा रेली है,
बिना किसी लोचे के फ़टके लगा रेली है,
सूनसान इलाके में कहीं ले जाकर,
अच्छे अच्छों को टपका रेली है,
 
आजकल भाई लोगों की इज़्ज़त भी जा रेली है,
पाकेटमार को भी मीडिया डाँन बुला रेली है,
अपुन भी सोच रेला है पोलिटिक्स जायन करने का,
काम वोइच पर इज़्ज़त से डबल इन्कम आ रेली है,
 
चलो भाई लोग अपुन अभी चलता है,
सलमा अपुन को बुला रेली है,
"सस्ता" मिले तो बोलना चमाट खायेगा मेरे हाथ से,
आजकल उसे ज़्यादा समझ में आ रेली है.....

Wednesday, 12 November 2008

मुझसे पहले सी मुहब्बत मेरे महबूब न माँग...

(1)

सोई है तक़दीर ही जब पीकर के भाँग,
महँगाई की मार से टूटी हुई है टाँग,
तुझे फ़ोन अब न करूँगा P.C.O. से हाँगकाँग,
मुझसे पहले सी मुहब्बत मेरे महबूब न माँग...

(2)

दिल को आदत सी हो गई है चोट खाने की,
गम छुपाने की,भीगी पलकों से मुस्कराने की,
होता जो गुमाँ हमें इस खेल-ए-सेन्सेक्स का,
तो गलती न करते पैसे "निफ़्टी" में लगाने की...

Monday, 10 November 2008

सिगरेटिया गज़ल !














जल रही है जहाँ-जहाँ सिगरेट,
कर रही है धुआँ-धुआँ सिगरेट,

हिज्र की शब में रोशनी कब है,
है फ़क़त ये अयाँ-अयाँ सिगरेट,

रात जागने की कहीं जो बात आई,
हो गई रोशन वहाँ-वहाँ सिगरेट,

इसकी आदत है जल कर के गिरना,
पाओगे अब कहाँ-कहाँ सिगरेट,

हो ना मय की तलब,न साकी की,
कर दे ऐसा समाँ-समाँ सिगरेट,

कैसे छोड़ोगे अब इसे "सस्ते",
है रगों में रवाँ-रवाँ सिगरेट...

Saturday, 8 November 2008

आँखें भीग जाती हैं...

एक बार फ़िर अपने शादी-शुदा दोस्तों का हाल-ए-दिल बयान करने वाले चार शे'र पेश कर रहा हूँ. उम्मीद है ये शे'र उनके दर्दे-जहाँ, दर्दे-ज़ीस्त, और दर्दे-बीवी पर मरहम का काम करेंगे  :-)

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मेरी बेगम ने झोंक दी हैं सालन में वो मिर्चें,
निवाला मुँह में रखता हूँ तो आँखें भीग जाती हैं,

शादी की ये तस्वीरें बड़ी मुश्किल से ढूँढी हैं,
मैं अब इनको पलटता हूँ तो आँखें भीग जाती हैं,

जमा-पूँजी मैं बिस्तर के सिरहाने रख के सोता था,
वहाँ अब हाथ रखता हूँ तो आँखें भीग जाती हैं,

मेरी शादी मेरी लग्ज़िश थी या गलती थी वालिद की,
मैं बीवी से जब ये सुनता हूँ तो आँखें भीग जाती हैं...

Monday, 3 November 2008

राम युग में दूध मिला !!

जब से सस्ते शेर से जुड़ाव हुआ है...तब से बहुत से मित्र ट्रक के पीछे शेर पढ़ के मुझे फ़ोन करके ज़रूर भेजते हैं, शेर जो ट्रक और ऑटो के पीछे लिखा होता है कभी -कभी तो गज़ब का आनन्द दे जाता है, दिन भर के लिये कुछ कहने को मिल जाता है..ऐसे मेरे एक मित्र ने ये लाइन किसी ट्रक से उतारा है जिसे मैं पेश करने का सुख ले रहा हूँ,

राम युग में दूध मिला !
कृष्ण युग में घी !!
कलियुग में दारू मिली !
सोच समझ के पी!!

Saturday, 1 November 2008

रात भर दबा के पी, खुल्लम खुल्ला बार में...

यह रचना मित्र लेलेराम ने ई-मेल की थी.बाद में पता चला कि असल में ये अपने "उड़नतश्तरी" साहब कि गज़ल है, और लेले भाई ने उनका नाम उड़ा के अपना नाम चढा दिया था. बहरहाल, गज़ल का क्रेडिट "उड़नतश्तरी" साहब के नाम है...और उनसे इज़ाज़त की गुज़ारिश के साथ आपकी खिदमत में पेश है...

रात भर दबा के पी, खुल्लम खुल्ला बार में,
सारा दिन गुजार दिया बस उसी खुमार में,  

गम गलत हुआ जरा तो इश्क जागने लगा,
रोज धोखे खा रहे हैं जबकि हम तो प्यार में, 

कैश जितना जेब में था, वो तो देकर आ गये,
बाकी जितनी पी गये, वो लिख गई उधार में,

यों चढ़ा नशा कि होश, होश को गंवा गया,
और नींद पी गई उसे बची जो जार में,

वो दिखे तो साथ में लिये थे अपने भाई को,  
गुठलियाँ भी साथ आईं, आम के अचार में,

याद की गली से दूर, नींद आये रात भर, 
सो गया मैं चैन से चादर बिछा मजार में,

हुआ ज़फ़र के चार दिन की उम्र का हिसाब यूँ,
कटा है एक इश्क में, कटेंगे तीन बार में,

होश की दवाओं में, बहक गये "लेले" भी,
फूल की तलाश थी, अटक गये हैं खार में....

Friday, 31 October 2008

बुढ़ापा मत देना हे राम!

बुढ़ापा मत देना हे राम! बुढ़ापा मत देना हे राम!
साठ साल की बुढ़िया हो गई है बिल्कुल बेकाम।
बुढ़ापा मत देना हे राम!

आँत भी नकली, दाँत भी नकली आँख पे चढ़ गया चश्मा
काँटा लगा दिखाई ना दे तब्बू और करिश्मा
देख के भागे दूर लड़कियाँ जैसे हूँ सद्दाम।
बुढ़ापा मत देना हे राम!

परियों-सी सुंदरियाँ बोलें बाबा, कहें खटारा
ऊपर राख जमी लेकिन भीतर धधके अंगारा
मन आवारा बंजारा तन हुआ रसीला आम।
बुढ़ापा मत देना हे राम!

पहले बुढ़िया थी ऐश्वर्या मैं सलमान के जैसा
अब वो टुनटुन जैसी लगती मैं महमूद के जैसा
दिल अब भी मजनूँ जैसा है अंग-अंग गुलफ़ाम।
बुढ़ापा मत देना हे राम!

फ़ैशन टी.वी. वाली छमिया जी हमरा ललचाए
चले 'रैंप' पर मटक-मटक 'कैरेक्टर' फिसला जाए
कैसे जपूँ तुम्हारी माला जी भटके हर शाम।
बुढ़ापा मत देना हे राम!

'व्हिस्की' छूट गई लटकी है 'ग्लूकोज' की बोतल
जी करता 'डिस्को' 'पब' जाऊँ पाँच सितारा होटल
'डांस बार' में बैठूँ चाहे हो जाऊँ बदनाम।
बुढ़ापा मत देना हे राम।

पाल-पोसकर बड़े किए वो लड़के काम न आए
मुझे बराती बना दिया दुल्हन को खुद ले आए
मैं भी दूल्हा बनूँ खर्च हों चाहे जितने दाम।
बुढ़ापा मत देना हे राम!

उमर पचहत्तर अटल बिहारी को दी तुमने क्वारी
मेरी तो सत्तर है किरपा करिए कृष्ण मुरारी
गोपी अगर दिला दो तो बनवा दूँ तेरा धाम।
बुढ़ापा मत देना हे राम!

रोम-रोम रोमांस भरा है राम न दिल को भाएँ
अस्पताल जाऊँ तो नर्सें हँस-हँस सुई चुभाएँ
कामदेव यमराज खड़े हैं दोनों सीना तान।
बुढ़ापा मत देना हे राम!

लोग पुराना टीव़ी लेकर जाएँ नया ले आएँ
हम टूटी फूटी बुढ़िया को किससे बदलकर लाएँ
'फेयर एंड लवली' छोड़के बैठी रगड़ रही है बाम।
बुढ़ापा मत देना हे राम!

क्लिंटन की तो खूब टनाटन मिलवाई थी जोड़ी
मेरे लिए ना उपरवाले कोई मोनिका छोड़ी
खुशनसीब होता गर मुझ पर भी लगता इल्ज़ाम।
बुढ़ापा मत देना हे राम!

मेरे संग-संग हुई देश की आज़ादी भी बूढ़ी
जनता पहने बैठी नेताओं के नाम की चूड़ी
अंग्रेज़ों से छूटे अंग्रेज़ी के हुए गुलाम।
बुढ़ापा मत देना हे राम


-डॉ. सुनील जोगी

Wednesday, 22 October 2008

बीवी-नामा...

शौहर को इस तरह से सताती हैं बीवियाँ,
ताने सुना के आँख दिखाती हैं बीवियाँ,

इन बीवियों की भूख की शिद्दत न पूछिये,
खाने के साथ सर भी तो खाती हैं बीवियाँ,

कुछ लोग डर के नींद में बीमार पड़ गये,
सुनते हैं उनके ख्वाब में आती हैं बीवियाँ,

शौहर कि जेब से तो इन्हें प्यार है मगर,
उससे ही दुश्मनी भी निभाती हैं बीवियाँ...

Monday, 20 October 2008

हिंग्रेज़ी कविता...

क्या बिंदास हवा चल रही है,
बर्ड गाना गा रहे हैं,
काऊ लोग ग्रास ईट रहे हैं,
स्याणे लोग "सस्ता-शेर" पर लिख रहे हैं,
और
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ढक्कन लोग उसे पढ रहे हैं!! Talking 

Friday, 17 October 2008

इश्क़ में ज़िन्दगी मुहाल न हो...

इश्क़ में ज़िन्दगी मुहाल न हो,
तेरे जैसा हमारा हाल न हो,

ऐ ख़ुदा इतना पेट भर देना,
फिर कभी ख्वाहिश-ए-रियाल न हो,

वो भी रखता है जेब में कन्घी,
एक भी सर पे जिसके बाल न हो,

इश्क़ उससे कभी नहीं करना,
जेब में जिसके माल-वाल न हो,

उसको तोहफ़े में गालियाँ देना,
जिसकी शादी में श्रीमाल न हो,

बीवीयाँ खुश रहा नहीं करतीं,
खून में जब तक उबाल न हो...

Wednesday, 15 October 2008

हाथों में अब के साल भी पर्चियाँ हज़ारों हैं...

मेरी शादी के लिये दोस्तों लड़कियां हज़ारों हैं,
हर खिड़की में लड़की,और खिड़कियाँ हज़ारों हैं,

एक तुम ही नहीं अकेली मेरे जाल में फँसी,
इस जाल में तुम जैसी मछलियाँ हज़ारों हैं,

लिखा जो तुमने लव-लेटर तो क्या हुआ हुज़ूर,
हमारी दराज़ में इस जैसी चिट्ठियां हज़ारों हैं,

हम वो परवाने नहीं जो शमा पे जल मरें,
हमारे घर में पहले ही बत्तियाँ हज़ारों हैं, 

दिये थे पहले भी इश्क़ के इम्तहान बहुत,
हाथों में अब के साल भी पर्चियाँ हज़ारों हैं,

एक और गई हाथ से तो मलाल क्यूँ करें,
देखिये तो बाग में तितलियाँ हज़ारों हैं,

Monday, 13 October 2008

खट्टी कढी औ बैंगन बघारे...

दुआ करने गये किस्मत के मारे,
हुए मस्जिद से गुम जूते हमारे,

अमीरे-शहर की बेटी है कानी,
हुए दामाद के वारे-न्यारे,

वतन वापस आकर भी क्या मिला है,
वही खट्टी कढी औ बैंगन बघारे,

हर एक डरने लगा बीवी से अपनी,
मुक़द्दर किसके अब कौन सँवारे,

खुली जो आखँ तो कुछ भी नहीं था,
ना काज़ी, ना मैं, ना ही छुहारे...

Saturday, 11 October 2008

जी चाहता है...

बड़ी तवक्को के साथ हाज़िर कर रहा हूँ...सस्ता शे'र पर पोस्ट किये गये शे'रों में सबसे पाक़ शे'र...दिल थाम के पढिये...फ़िर जी खोल के मुझे गालियाँ(दाद) दीजिये-

जी चाहता है तेरी ले लूँ,
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सारी मुसीबतें उम्र भर के लिये,
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तुझ को देख कर मेरा उठा है,
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हाथ दुआ करने के लिये....

Friday, 10 October 2008

मुखतलिफ़ अश'आर..

(1)
इश्क़ में हमने क्या क्या पाया है?
हाथ पैर टूटे,मुँह से लहू आया है
अस्पताल पहुँचने पर नर्सों ने ये फ़रमाया है,
बहारों फूल बरसाओ,आशिक़ पिट के आया है..

(2)
(इरफ़ान जी से  माफ़ी की गुज़ारिश के साथ)

भाई इरफ़ान की शादी में हमने पी ली शराब,
भाई इरफ़ान की शादी में हमने पी ली शराब,
फिर जो हुई तबीयत खराब,
दे पेशाब पे पेशाब,दे पेशाब पे पेशाब..

(3)
इस खौफ़ से बाहर निकलना छोड़ दिया गालिब
कि कहीं कोई लड़की फिर खुदकशी न कर बैठे !

(4)
ये कह कर मकान-मालिक ने घर से निकाल दिया फ़राज़,
तू शाहीन है बसेरा कर पहाड़ों की चट्टानों में...

Wednesday, 8 October 2008

बकवास और टोटल टाईमपास...

ये बात समझ् में आई नहीं,
अम्मी ने मुझे समझाई नहीं,
मैं कैसे मीठी बातें करूँ,
जब मैनें मिठाई खाई नहीं,
जब बिल्ली शेर की खाला है,
फ़िर हमने इसे क्यूँ पाला है,
क्या शेर बहुत नालायक है,
जो खाला को मार निकाला है,

ये बात समझ में आई नहीं...

क्यूँ लंबे बाल हैं भालू के,
क्यूँ उसने शेव करवाई नहीं,
क्या वो भी गंदा बच्चा है,
या जंगल में कोई नाई नहीं,
ये बात समझ में आई नहीं,
अम्मी ने मुझे समझाई नहीं...

Monday, 6 October 2008

मुफ़त की रोटियाँ तोड़ो ससुर जी माल वाले हैं...

करीबन दो-ढाई महीनों से लगातार पोस्टीयाने की वजह से स्टाक की रौनक खतम होने लगी है.सो सस्ता लिखने का फ़ैसला करना पड़ा, नहीं तो अपनी दुकान बंद करने के अलावा कोई चारा नहीं बचता. उम्मीद है ये कोशिश आपको अच्छी लगेगी-

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जहाँ की फ़िक्र को छोड़ो ससुर जी माल वाले हैं,
मुफ़त की रोटियाँ तोड़ो ससुर जी माल वाले हैं,

कि लो गाड़ी नई माडल,बिताओ फ़्रांस में छुट्टी,
कोई मौका नहीं छोड़ो ससुर जी माल वाले हैं,

ये मेरा सूट "अरमानी" ये मेरे शूज हैं "गुच्ची",
घड़ी "रोलेक्स"औ"राडो" ससुर जी माल वाले हैं,

सालियों औ सलहजों से निस्बतें भी ठीक हैं लेकिन,
निगाहें सास पर मोड़ो ससुर जी माल वाले हैं,

सहो बीवी के नखरे तुम दनादन जूतियाँ खाओ,
न उसका हाथ तुम पकड़ो ससुर जी माल वाले हैं,

सभी दामादों में तुमही तो इक चंगेज़ हो लेकिन,
मियाँ यूँ भी नहीं अकड़ो ससुर जी माल वाले हैं,

ये बातें भूल जाओ तुम कभी तुममें भी थी गैरत,
घर के सब आईने तोड़ो ससुर जी माल वाले हैं...

( दूसरा और तीसरा शे'र मित्र  रोहित जैन  के सौजन्य से)

Saturday, 4 October 2008

फ़ुटकर शे'र...

(1)
हर गली हर दीवार पर तेरा नाम है,
हर गली हर दीवार पर तेरा नाम है,
ऊपर लिखा है "चप्पल चोर"
और नीचे 5 रुपये का ईनाम है!

(2)
अगर ताँगे में आना था तो पीछे बैठ जाना था,
तेरे पहलू में बैठा कोचवाँ अच्छा नहीं लगता...

(3)
इश्क़बाजी में जान देने लगा,
और आहटों पे कान देने लगा,
जब से देखी पडोसी की मुर्गी,
मेरा मुर्गा अजान देने लगा..

(4)
महफ़िल में इस खयाल से आ गया हूँ मैं,
शायद मुझे निकाल कर कुछ खा रहे हों आप..

(5)
गुनगुनाता नाचता गाता हुआ दरकार है,
दिल को बहलाने की खातिर झुनझुना दरकार है,
इक सहेली दूसरी से हँस के बोली एक दिन,
जिस को शौहर कह सकूँ वो मसखरा दरकार है...

(6)
भैंस की दुम बेसबब नहीं गालिब,
कुछ तो है जिसकी पर्दादारी है !

Wednesday, 1 October 2008

तुम्हारी भूख की खातिर मुझी पर क्यूँ अजाब आये?









तू पापी है तेरी ख्वाहिश है दामन में सवाब आये,
मगर कहता है दिल तेरा बेहिजाबी बेहिजाब आये,

फ़िट्टे उस मुँह से लेता है मेरी बेटी का तू जो नाम,
दुआ है खाक उस मुँह में तेरे भी बेहिसाब आये,

हिफ़ाज़त अब मेरे ईमान की मालिक ही करे लोगों!,
की फ़रमाइश थी ज़मज़म की वो लेकर के शराब आये,

मना कितना किया मैने कहाँ सुनते ससुर जी हैं,
जमीं पर गंद फैली थी पर वो पहने जुराब आये,
 
न जाने कौन सी आंटी ने इनको आँख मारी है,
कि पीरी में भी बुड्ढे पर बहार आये शबाब आये,
 
जो सर अपना झुकाये है, कहे रोकर वही गंजा,
शराफ़त है कहाँ की ये कि तोहफ़े में खिजाब आये,
 
मुझे खाओ नहीं पका के मैं हूँ मजलूम सा पंछी,
तुम्हारी भूख की खातिर मुझी पर क्यूँ अजाब आये? 

मेरे दुशमन की हर मुर्गी ने सोने के दिये अंडे,
मेरी मुर्गी से आये जो सभी अंडे खराब आये, 
 
गरीबी का ये आलम है के सब्ज़ी पर गुज़ारा है,
तेरी किस्मत में ऐ "सस्ते" न जाने कब क़बाब आये...


(चित्र "PETA" से साभार)

Monday, 29 September 2008

घर पे आये वो बाँधने राखी...

अब वो पहले से उनके गाल नहीं,
फिर भी उनकी कोई मिसाल नहीं,

अब तो है सर पे तोहमतों का बोझ, 
एक मुद्दत से सर पे बाल नहीं,

गर हवा में भी उड़ के दिखलाऊँ,
चश्म-ए-बीवी में कुछ कमाल नहीं,

लज़्ज़त-ए-हिज्र है बुढापे में,
लज़्ज़त-ए-कुर्ब का सवाल नहीं,

घर पे आये वो बाँधने राखी,
गर्मी-ए-शौक़ का कमाल नहीं,

अब भी मिलते हैं लोग मुझ जैसे,
हाँ,शरीफ़ों का अब भी अकाल नहीं..

Saturday, 27 September 2008

शादी के जो अफ़साने हैं रंगीन बहुत हैं...

शादी के जो अफ़साने हैं रंगीन बहुत हैं,
लेकिन जो हक़ीक़तें हैं संगीन बहुत हैं,

इबलीस बेचारे को ही बेकार न कोसो,
इन्सान के अन्दर भी शैतान बहुत हैं,

बख्शीश की सूरत उन्हें देते रहो रिश्वत,
सरकार के दफ़्तर में मस्कीन बहुत हैं,

इस दौर के मर्दों की जो शक़्ल शुमारी,
साबित हुआ दुनिया में ख़वातीन बहुत हैं,

जब हज़रते-नासेह ने खाया मुर्ग तंवाला,
फ़रमाया कि दालों में प्रोटीन बहुत है!

Thursday, 25 September 2008

नक़्श फ़रियादी है किसकी शोखी-ए-तहरीर का...

आशिक़ी इक मारिका है परतवे-तदबीर का,
देग चूल्हे पे चढा है मार है कफ़गीर का,

उनके डैडी ने भी आखिर फ़ैसला कर ही दिया,
मेरे उनके दरमियाँ दीवार की तामीर का,

मुस्करा कर ही फेर देते हैं गले पर छुरी,
नाम तक लेते नहीं हैं तस्मिया तक्बीर का,

उनके भाई माहिर-ए-जूडो कराटे हो गये,
आशिक़ी अब हश्र क्या होगा तेरी तदबीर का,

शायरी करते हैं लेकिन बहर् से हैं दूर दूर,
एक मिसरा तीर का तो दूसरा है मीर का,

चार टुकडों के लिये हम घर से बेघर हो गये,
नक़्श फ़रियादी है किसकी शोखी-ए-तहरीर का,

उनके दूल्हे से भी हम ने दोस्ती कर ली मगर,
फ़ायदा कुछ भी हुआ न हम को इस तदबीर का..

Tuesday, 23 September 2008

क्यूँ नहीं देते ?

(1)
है ख्वाहिश अगर चप्पल की तो दिला क्यूँ नहीं देते,
बेगम को मुसीबत से बचा क्यूँ नहीं लेते,
पूछे अगर कोई मोची नाप पावों की,
पीठ पर जो नक़्श है दिखा क्यूँ नहीं देते...

(२)

औलाद को धन्धे पे लगा क्यूँ नहीं देते,
बुक हाथ में चंदे की थमा क्यूँ नहीं देते,
लुच्चा है, लफंगा है, अगर आप का बेटा,
बस्ती का उसे लीडर बना क्यूँ नहीं देते...

Saturday, 20 September 2008

सस्ता-शे'र के शायरों के लिये खास पेशकश-

(1)

बढ रहा है क़ौम के बच्चों में ज़ौक-ए-शायरी,

गोया शायरी हर फ़र्द पर एक फ़र्ज़ है,

रहा यही आलम तो हर बच्चा पैदाइश के बाद,

साँस लेते ही पुकारेगा- "मत्ला अर्ज़ है" ! 


(2)
ये मुझको खबर है कि नहीं मुझमें कोई गुन,

लेकर के यहाँ आया हूँ मैं आज नई धुन,

तू अपनी गज़ल पढ के खिसकता है किधर को,

मैंने तो तुझे सुन लिया अब तू भी मुझे सुन...


(3)
शे'र अच्छा है,फ़न अच्छा है,क़माल अच्छा है,

देखना सब ये कहेंगे के खयाल अच्छा है,

दोस्तों आप को सुनाऊँगा नये शे'र अभी,

वो अलग बाँध के रक्खा है जो माल अच्छा है...

Monday, 15 September 2008

क़सम से पटाने को जी चाहता है....

पेशे-ख़िदमत है हिन्दुस्तानी खवातीन का हाले-दिल बयान करती एक सस्ती गज़ल. अनुरोध है कि पढते समय दिल में महँगी भावनाएँ न लाएँ-

------------------------------ 
नई साड़ी लाने को जी चाहता है,
पुरानी जलाने को जी चाहता है,
 
पहनकर मोहल्ले कि सब औरतों को,
इकट्ठा दिखाने को जी चाहता है ,

मियाँजी क भारी हुआ है प्रमोशन,
सो पैसे उड़ाने को जी चाहता है,

जो बातें सुनी थीं पड़ोसन के घर में,
वो बातें बताने को जी चाहता है ,

सुना है बड़ा खूबरू है पड़ोसी,
क़सम से पटाने को जी चाहता है, 

ये हलवा जो मैने पकाया है मुझको,
उसे भी खिलाने को जी चाहता है,

बनी जब से सौतन, सहेली हमारी,
कहीं भाग जाने को जी चाहता है ,

बड़े मूड में आज आया है ज़ालिम!
उसे तड़पाने को जी चाहता है,

सुना कर उसे अपनी गज़लें धड़ाधड़,
मुसल्सल पकाने को जी चाहता है,

मुझे जितना उसने सताया है उतना,
उसे भी सताने को जी चाहता है ...

Saturday, 13 September 2008

दिलजलों की शायरी

(1)
तू पहले ही है पिटा हुआ, ऊपर से दिल नाशाद न कर,
हो गई ज़मानत तो जाने दे, वो जेल के दिन अब याद ना कर,
तू उठ के रात को 12 बजे ,विह्स्की रम की फ़रियाद ना कर,
तेरी लुटिया डूब चुकी है , ऐ इश्क़ मुझे बर्बाद न कर....

(२)
खा के क़स्में प्यार की आए यहाँ,
गर्दिशों में पेंच ढीले हो गये,
ढूँढते हम फिर रहे हैं नौकरी,
और उनके हाथ पीले हो गये !!!

(३)
नंबर वाला पहन लिया चश्मा,
अब बड़ों में शुमार हमारा है,
आँखों में जो बसी थी कभी,
उसने भी अंकल कह के पुकारा है!

(४)
लड़की कहाँ से लाऊँ मै शादी के वास्ते,
शायद के इसमें मेरे मुक़द्दर् क दोष है,
अज़रा,नसीम,सना ओ सबा भी गईं,
एक शमा रह गई है सो वो भी खामोश है !

(५)
6 महीने ही में ये हाल हुआ शादी के,
साल तो दूर है फिर कभी ख्वाबों में मिलें,
इस तरह रक्खा है बेगम ने मुझे घर में,
जिस तरह सूखे हुए फूल किताबों में मिलें..

Thursday, 11 September 2008

जिस क़दर जूते पड़ें आराम है !

जिस क़दर जूते पड़ें आराम है,
आशिक़ी बे-गैरती का नाम है,

खूब हैं आँखें तेरी छोटी-बड़ी,
एक है अखरोट इक बादाम है,

इश्क़ के मिस्कीं जूते खाये जा,
बाद हर तकलीफ़ के आराम है,

उफ़ मेरी लैला का मुझसे पूछ्ना,
कहिये मजनू आप ही का नाम है?

Wednesday, 10 September 2008

चाँद औरों पर मरेगा क्या करेगी चाँदनी?

आज से क़रीबन 5-6 साल पहले हुल्लड़ मुरादाबादी साहब को सुनने का मौका मिला था.उनके सुनाए कुछ शेर नोट कर के ले आया था. देखें-
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चाँद औरों पर मरेगा क्या करेगी चाँदनी,
प्यार में पंगा करेगा क्या करेगी चाँदनी,

चाँद से हैं खूबसूरत भूख में दो रोटियाँ,
कोई बच्चा जब मरेगा क्या करेगी चाँदनी,

डिग्रियाँ हैं बैग में पर जेब में पैसे नहीं,
नौजवाँ फ़ाँके करेगा क्या करेगी चाँदनी,

जो बचा था खून वो तो सब सियासत पी गई,
खुदकुशी खटमल करेगा क्या करेगी चाँदनी,

दे रहे चालीस चैनल नंगई आकाश में,
चाँद इसमें क्या करेगा क्या करेगी चाँदनी,

साँड है पंचायती ये मत कहो नेता इसे,
देश को पूरा चरेगा क्या करेगी चाँदनी,

एक बुलबुल कर रही है आशिक़ी सय्याद से,
शर्म से माली मरेगा क्या करेगी चाँदनी,

लाख तुम फ़सलें उगा लो एकता की देश में,
इसको जब नेता चरेगा क्या करेगी चाँदनी,

ईश्वर ने सब दिया पर आज का ये आदमी,
शुक्रिया तक ना करेगा क्या करेगी चाँदनी,

गौर से देखा तो पाया प्रेमिका के मूँछ थी,
अब ये "हुल्लड़" क्या करेगा, क्या करेगी चाँदनी....

Tuesday, 9 September 2008

खटमल हैं चारपाई में !

नींद यूँ भी कहाँ जुदाई में,
उस पे खटमल हैं चारपाई में,

सामने आऐं तो दुल्हन बन कर,
जान दे दूँगा मुँह दिखाई में,

खुश हुईं उनकी माँ भी अब क्या है,
उँगलियाँ घी में हैं सर कढाई में,

नहीं चेचक के दाग उस रुख पर,
मक्खियाँ लिपटी हैं मिठाई में...

Monday, 8 September 2008

ख़लीफ़ा बब्बर की खोपड़ी

पढिये अशोक चक्रधर की एक कविता ....

दर्शकों का नया जत्था आया
गाइड ने उत्साह से बताया—

ये नायाब चीज़ों का
अजायबघर है,
कहीं परिन्दे की चोंच है
कहीं पर है।

ये देखिए
ये संगमरमर की शिला
एक बहुत पुरानी क़बर की है,
और इस पर जो बड़ी-सी
खोपड़ी रखी है न,
ख़लीफा बब्बर की है।

तभी एक दर्शक ने पूछा—
और ये जो
छोटी खोपड़ी रखी है
ये किनकी है ?

गाइड बोला—
है तो ये भी ख़लीफ़ा बब्बर की
पर उनके बचपन की है।

धूम से सूली चढाना याद है!

पेशे-ख़िदमत है हुसैनी खांडवी साहब की एक गज़ल, जिसमें वो अपना और हमारे शादी-शुदा पाठकों का हाले-दिल बयाँ कर रहे हैं-

आज तक वो बैण्ड-बाजे शामियाना याद है,
खुद को इतनी धूम से सूली चढाना याद है,

तीन मौके भी दिये थे काज़ी ने गौर-ओ -फ़िक्र के,
आज तक वो कीमती मौके गँवाना याद है,

घर जिसे लाये थे हम रोटी पकाने के लिये,
अब पकाती है हमें उसका पकाना याद है,

ना सिलाई जानती है ना कुकिंग मालूम है,
हाँ उसे शौहर को उँगली पर नचाना याद है,

उसकी हर इक बात पर कहना ही पड़ता है "बज़ा"
इस तरह उसका हमें बरसों बजाना याद है

मानते हैं हम "हुसैनी" हादिसा होगा शदीद,
क्यों कि तुमको वाक़या इतना पुराना याद है

-हुसैनी खांडवी

Saturday, 6 September 2008

मुश्किल है अपना मेल प्रिये..

प्रस्तुत है सस्ता शेर की अब तक की सबसे ज़्यादा शब्द संख्या वाला पोस्ट। ये गीत मेरे पास रोमन लिपि में था,पर इसे देवनागरी में टंकित करने की हिम्मत नहीं पड़ रही थी। आज पहली बार देवनागरी में मिला, सो जैसे का तैसा चस्पा कर रहा हूँ. आशा है आपको मज़ा आयेगा-


मुश्किल है अपना मेल प्रिये, ये प्यार नहीं है खेल प्रिये,
तुम एम ए फ़र्स्ट डिवीज़न हो, मैं हुआ मैट्रिक फेल प्रिये,

मुश्किल है अपना मेल प्रिये, ये प्यार नहीं है खेल प्रिये,

तुम फ़ौजी अफ़सर की बेटी, मैं तो किसान का बेटा हूँ,
तुम राबड़ी खीर मलाई हो, मैं तो सत्तू सप्रेटा हूँ,
तुम ए. सी. घर में रहती हो, मैं पेड़ के नीचे लेटा हूँ,
तुम नई मारुति लगती हो, मैं स्कूटेर लंबरेटा हूँ,
इस कदर अगर हम चुप-चुप कर आपस मे प्रेम बढ़ाएँगे,
तो एक रोज़ तेरे डैडी अमरीश पुरी बन जाएँगे,
सब हड्डी पसली तोड़ मुझे भिजवा देंगे वो जेल प्रिये,

मुश्किल है अपना मेल प्रिये, ये प्यार नहीं है खेल प्रिये,

तुम अरब देश की घोड़ी हो, मैं हूँ गदहे की नाल प्रिये,
तुम दीवाली का बोनस हो, मैं भूखो की हड़ताल प्रिये,
तुम हीरे जड़ी तश्तरी हो, मैं almuniam का थाल प्रिये,
तुम चिक्केन-सूप बिरयानी हो, मैं कंकड़ वाली दाल प्रिये,
तुम हिरण-चौकरी भरती हो, मैं हूँ कछुए की चाल प्रिये,
तुम चंदन वन की लकड़ी हो, मैं हूँ बबूल की छाल प्रिये,
मैं पके आम सा लटका हूँ, मत मारो मुझे गुलेल प्रिये,

मुश्किल है अपना मेल प्रिये, ये प्यार नहीं है खेल प्रिये,

मैं शनी-देव जैसा कुरूप, तुम कोमल कन्चन काया हो,
मैं तन से मन से कांशी राम, तुम महा चंचला माया हो,
तुम निर्मल पावन गंगा हो, मैं जलता हुआ पतंगा हूँ,
तुम राज घाट का शांति मार्च, मैं हिंदू-मुस्लिम दंगा हूँ,
तुम हो पूनम का ताजमहल, मैं काली गुफ़ा अजन्ता की,
तुम हो वरदान विधता का, मैं ग़लती हूँ भगवांता की,
तुम जेट विमान की शोभा हो, मैं बस की ठेलम-ठेल प्रिये,

मुश्किल है अपना मेल प्रिये, ये प्यार नहीं है खेल प्रिये,

तुम नई विदेशी मिक्सी हो, मैं पत्थर का सिलबट्टा हूँ,
तुम ए के-सैंतालीस जैसी, मैं तो इक देसी कट्टा हूँ,
तुम चतुर राबड़ी देवी सी, मैं भोला-भाला लालू हूँ,
तुम मुक्त शेरनी जंगल की, मैं चिड़ियाघर का भालू हूँ,
तुम व्यस्त सोनिया गाँधी सी, मैं वी. पी. सिंह सा ख़ाली हूँ,
तुम हँसी माधुरी दीक्षित की, मैं पुलिसमैन की गाली हूँ,
कल जेल अगर हो जाए तो दिलवा देना तुम बेल प्रिये,

मुश्किल है अपना मेल प्रिये, ये प्यार नहीं है खेल प्रिये,

मैं ढाबे के ढाँचे जैसा, तुम पाँच सितारा होटल हो,
मैं महुए का देसी ठर्रा, तुम रेड-लेबल की बोतल हो,
तुम चित्र-हार का मधुर गीत, मैं कृषि-दर्शन की झाड़ी हूँ,
तुम विश्व-सुंदरी सी कमाल, मैं तेलिया छाप कबाड़ी हूँ,
तुम सोने का मोबाइल हो, मैं टेलीफ़ोन वाला हूँ चोँगा,
तुम मछली मानसरोवर की, मैं सागर तट का हूँ घोंघा,
दस मंज़िल से गिर जाऊँगा, मत आगे मुझे धकेल प्रिये,

मुश्किल है अपना मेल प्रिये, ये प्यार नहीं है खेल प्रिये,

तुम सत्ता की महारानी हो, मैं विपक्ष की लाचारी हूँ,
तुम हो ममता-जयललिता जैसी, मैं क्वारा अटल-बिहारी हूँ,
तुम तेंदुलकर का शतक प्रिये, मैं फॉलो-ओन की पारी हूँ,
तुम getz, matiz, corolla हो मैं Leyland की लॉरी हूँ,
मुझको रेफ़री ही रेहने दो, मत खेलो मुझसे खेल प्रिये,
मुश्किल है अपना मेल प्रिये, ये प्यार नहीं है खेल प्रिये,
मैं सोच रहा की रहे हैं कब से, श्रोता मुझको झेल प्रिये,

मुश्किल है अपना मेल प्रिये, ये प्यार नहीं है खेल प्रिये...

शायरों की शहर में किल्लत नहीं रही!

यूँ भी नहीं कि उदू से अदावत नहीं रही,
हाथों में लड़ने-भिड़ने की ताकत नहीं रही,

थाने कि एक पिटाई ने सन्जीदा कर दिया,
जलवों से छेड़छाड़ की आदत नहीं रही,

हमको वतन से दूर किया रोज़गार ने,
दामने-यार से कोई निस्बत नहीं रही,

पानी नहीं है घर में कई दिन से ऐ खुदा,
आईना देखने की भी हिम्मत नहीं रही,

मजबूर कर दिया है गरीबी ने इस क़दर,
सिगरेट-ओ-पान की कोई आदत नहीं रही,

होते हैं सामयीन तो मुश्किल से दस्तयाब,
पर शायरों की शहर में किल्लत नहीं रही,

ऊल्लू हमारे पहले से सीधे हैं "माहताब" ,
ऊल्लू को सीधा करने की ज़हमत नहीं रही...

Thursday, 4 September 2008

गर्दिश-ए-अय्याम....

ये शे'र विजयशंकर चतुर्वेदी जी के एक पोस्ट से प्रेरित हैं, पर उनके स्कूल आँफ़ थाट्स से सरोकार रखने वाले लोग इसके रिक्त स्थानों की पूर्ति ना करें :) । बाकी सब लोग कोशिश कर सकते हैं-

हर सुबह, हर शाम की माँ ____ के रख दी,
तुमने तो गर्दिश-ए-अय्याम की माँ ____के रख दी,
ठर्रा भी पिलाया मुझे व्हिस्की भी पिलाई,
साकी ने तो मेरे जाम की माँ ____ के रख दी...

खुली छोड़ देते हैं .........

एक मित्र द्वारा भेजी गई रचना प्रेषित कर रहा हूँ । पता नहीं किस की लिखी हुई है ।

वैधानिक चेतावनी : अनुरोध है कि इस कविता को मेरी सम्पूर्ण नारी जाति के प्रति भावनाओं से न जोड़ा जाये ।
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एक शराबी भैंस से टकरा के बोला हम ये बोतल तोड़ देते हैं
बहन जी मुआफ करना हम यह पीना पिलाना छोढ़ देते हैं
और फ़िर एक मोटी सी औरत से टकरा के गुर्रा के बोला
यह साले बाँध कर नहीं रख्ते अपनी भैंसें खुली छोढ़ देते हैं
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Tuesday, 2 September 2008

बेसिरपैर के शे'र

पेश हैं दुष्यन्त कुमार के चंद बेसिरपैर वाले शे'र, जो कहते हैं कि उन्होंने उज्जैन में होने वाले किसी कवि सम्मेलन में सुनाए थे. चौथे शे'र में इंगित "सुमन" कौन हैं, मुझे नहीं मालूम. अगर आपको मालूम हो तो ज़रूर बताएँ-

याद आता है कि मैं हूँ शंकरन या मंकरन,
आप रुकिये फ़ाइलों में देखकर आता हूँ मैं,

इनका चेहरा है कि हुक्का है कि गोबर गणेश,
किस क़दर संजीदगी,यह सबको समझाता हूँ मैं,

उस नई कविता पर मरती ही नहीं हैं लड़कियां,
इसलिये इस अखाड़े में नित गज़ल गाता हूँ मैं,

ये "सुमन" उज्जैन का है इसमें खुश्बू तक नहीं,
दिल फ़िदा है इसकी बदबू पर क़सम खाता हूँ मैं,

इससे ज़्यादा फितरती इससे हरामी आदमी,
हो न हो दुनिया में पर उज्जैन में पाता हूँ मैं...

Monday, 1 September 2008

वो बयाबाँ में हैं और घर में बहार आई है!

(1)
हज अदा करने गया कौम का लीडर,
संगबारी के लिये शैतान् तक जाना पड़ा,
एक कंकड़ फेंकने पर ये सदा आई उसे,
तुम तो अपने आदमी थे तुमको आखिर क्या हुआ?

(2)
पीटा है तेरे बाप ने कुछ इस तरंग से,
टीसें सी उठ रही हैं मेरे अंग अंग से,
फ़रियाद करने पे मेरे कुछ इस तरह कहा,
गिरते हैं शह-सवार ही मैदान-ए-जंग में!

(3)
इंडस्ट्रियाँ सारी मेरे यार खा गये,
मेरी सारी जायदाद रिश्तेदार खा गये,
मेरे मरने के बाद भी की उन्होंने बेईमानी,
बनाई मज़ार तो मीनार खा गये!

(4)
कब से परदेस में हैं घर की नहीं ली सुध भी,
एक बच्चे की खबर आज भी यार आई है,
उनको परदेस में क़ुदरत ने ये बख्शी इज़्ज़त,
वो बयाबाँ में हैं और घर में बहार आई है!

Saturday, 30 August 2008

हप्ते का हिसाब

आज सनीचर है
तो
कल इतवार होगा,
कल इतवार है

तो परसों सोमवार होगा.

( सप्ताह के बाकी दिनों का हिसाब,
खुद ही समझ लें जनाब !
ऊपर लिखा 'सेर' जमे तो चंगा,
नहीं तो काहे मुफ़्त का पंगा !! )

Tuesday, 26 August 2008

हर अदा उसकी...




हर अदा उसकी हरेक बात बुरी लगती है,
ब्याह हो जाये तो ये ज़ात बुरी लगती है,

ऐसे में तज़ुर्बे से गुज़रा हूँ यारों कि मुझे,
हर निकलती हुई बारात बुरी लगती है,

जब कहीं बन-सँवर के जाने लगूँ,
मुझसे करती है सवालात बुरी लगती है,

सख्त गर्मी में भी नहाने के लिये,
देने पड़ते हैं वज़्हात, बुरी लगती है,

कहाँ छूने की तमन्ना थी और अब ये आलम,
जब लगाती है मुझको हाथ बुरी लगती है...

Saturday, 23 August 2008

इश्क़ की मार....



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इश्क़ की मार क्या करें साहिब,
दिल है बीमार क्या करें साहिब,

एक लैला थी एक मजनू था,
अब है भरमार क्या करें साहिब,

जिस ने चाहा उसी ने लूट लिया,
हम थे हक़दार क्या करें साहिब,

उनको मेक-अप ने डुप्लीकेट किया,
ऐसा सिंगार क्या करें साहिब,

पेट तो भूख से परेशान है,
रंग-ओ-गुल्नार क्या करें साहिब,

जिनसे है प्यार की उम्मीद हमें,
वो हैं खूंखार क्या करें साहिब...

Wednesday, 20 August 2008

दुष्यन्त कुमार की सस्ती गज़लें...

हिन्दी गज़लों के माई-बाप कहे जाने वाले श्री दुष्यन्त कुमार ने धर्मयुग के संपादक अपने मित्र धर्मवीर भारती के नाम ये सस्ती गज़लें लिखी थीं, पता नहीं धर्मवीर जी तक ये पहुँचीं थीं या नहीं। देखिये...


पत्थर नहीं हैं आप तो पसीजिए हुज़ूर,
संपादकी का हक़ तो अदा कीजिए हुज़ूर,

अब ज़िन्दगी के साथ ज़माना बदल गया,
पारिश्रमिक भी थोड़ा बदल दीजिए हुज़ूर,

कल मैक़दे में चेक दिखाया था आपका,
वे हँस के बोले इससे ज़हर पीजिए हुज़ूर,

शायर को सौ रुपए तो मिलें जब गज़ल छपे,
हम ज़िन्दा रहें ऐसी जुगत कीजिए हुज़ूर,

लो हक़ की बात की तो उखड़ने लगे हैं आप,
शी! होंठ सिल के बैठ गये ,लीजिए हुज़ूर॥


उपरोक्त गज़ल का संभावित उत्तर, दुष्यन्त जी के ही शब्दों में-

जब आपका गज़ल में हमें ख़त मिला हुज़ूर,
पढ़ते ही यक-ब-यक ये कलेजा हिला हुज़ूर,

ये "धर्मयुग" हमारा नहीं सबका पत्र है,
हम घर के आदमी हैं हमीं से गिला हुज़ूर,

भोपाल इतना महँगा शहर तो नहीं कोई,
महँगी का बाँधते हैं हवा में किला हुज़ूर,

पारिश्रमिक का क्या है बढा देंगे एक दिन,
पर तर्क आपका है बहुत पिलपिला हुज़ूर,

शायर को भूख ने ही किया है यहाँ अज़ीम,
हम तो जमा रहे थे यही सिलसिला हुज़ूर...

Tuesday, 19 August 2008

तेरी गली में....

ये संदेश उन सब के नाम जो अब तक नहीं पटीं,और आगे पटने की संभावना भी नगण्य है :-)

इतने पड़े डंडे अबकी तेरी गली में,
अरमाँ हो गये सब ठंडे तेरी गली में,

हाथ में कंघी है,ज़ुल्फ़ें सँवारते हैं,
गड़ेंगे आशिक़ी के झंडे तेरी गली में,

अब क्या बताएँ ज़ालिम कैसे गुज़रते हैं,
संडे तेरी गली में, मंडे तेरी गली में,

हम ढूंढ लेंगे कोई दीदार का बहाना,
हम बेचा करेंगे अंडे तेरी गली में...

Wednesday, 13 August 2008

शोभना चौरे की शायरी: नमूने देखें

दोस्तो ये जमाना क्या हो गया है,
जिसे चाहा वो बेवफा हो गया है|

तुम्हारे लिए तुम्हे ही छोड़ दिया है,
सिर्फ़ अल्फाजो से क्या होता है,
मेने अपने ज़ज्बतो को भी छोड़ दिया है|


सवालो के जंगल मे घूमते हुए
जिंदगी खो देते हम,
जवाबो की चाहत मे शातिर हो बैठे हम

ये कहना आसान है,
बंदे मासूम है आप
इस मासूमियत मे,
अपनी काबिलियत गवा बैठे हम|

Tuesday, 12 August 2008

आँखें...


अहद का इक ज़वाल हैं आँखें,
कितनी केहतोर-रिजाल हैं आँखें,
एक से दूसरी नहीं मिलती,
भैंगेपन का कमाल हैं आँखें,
देखते ही रगड़ दिया दिल को,
आप की रेग-माल हैं आँखें,
दुश्मनों को निहाल करती हैं,
मेरे हक़ में वबाल हैं आँखें,
302 भी इन पे लगता है,
कितनी ज़ालिम निढाल हैं आँखें,
डालर-ओ-पाउन्ड इन को भाते हैं,
शैख जी का रियाल हैं आँखें,
तुम कभी इनमें झाँक के देखो,
इक गहरी सी चाल हैं आँखें...

विनय शर्मा की एक सस्ती ग़ज़ल

शेर है मेरा सबसे सस्ता
है लेकिन ये एकदम खस्ता

इसकी ही है चर्चा हरसू
गली-गली औ' रस्ता-रस्ता

टूटा हैं यह कसता-कसता
उजड़ गया है बसता-बसता

उसकी किस्मत-मेरा क्या है
निकला है वो फँसता-फँसता

दुनिया क्यों है रोती रहती
जग है फ़ानी-जोगी हंसता

Friday, 8 August 2008

पेश हैं अनुराग शर्मा के भेजे दो अशआर .

पेश हैं अनुराग शर्मा के भेजे दो अशआर .
ूओओओओओओओओओओओओओओ

ओओओओओओओओओओओओओओ



ओओओओओओओओओ

ओओओओओओओओओओओओओओओओओओओओ

ओओओओओओओओओओओओओओओओओओ

उल्लू के पट्ठे, हुए हैं इकट्ठे
बिठाने चले हैं, अपने ही भट्टे



हम चमक गए, वो चमका गए
मजूरी ले गए, चूना भी लगा गए.

Thursday, 7 August 2008

आपमें से कितनों ने प्याज का हलवा खाया है?

शौहर से इंतहाई मुहब्बत की ये मिसाल देखें-

अध पकी खिचड़ी रखी है शौक़ फ़रमाऐंगे क्या?
तौबा खाली पेट ही दफ़्तर चले जाऐंगे क्या?

चाय में लहसन की बदबू आ गई तो क्या हुआ?
अल्लाह! माँ-बहन पर आप उतर आऐंगे क्या?

दूध में मक्खी ही थी चूहा तो न था ऐ हूज़ूर,
हाथ धो कर आप अब पीछे ही पड़ जाऐंगे क्या?

प्याज का हलवा बना दूँ ऐ ज़रा रुक जाइये,
भूखे रह कर आप मेरी नाक कटवाऐंगे क्या?

Tuesday, 5 August 2008

जिस शख्स को ऊपर से कमाई नहीं होती...

जिस शख्स को ऊपर से कमाई नहीं होती,
सोसाइटी उस की कभी हाई नहीं होती,

करती है वो उसी रोज़ शापिंग का तक़ाज़ा,
जिस रोज़ मेरी ज़ेब में पाई नहीं होती,

पुलिस करा लाती है हर चीज़ बरामद,
उस से भी के जिस ने चुराई नहीं होती,

मक्कारी-ओ-दगा आम है पर इस के अलावा,
सस्ते शायर में कोइ भी बुराई नहीं होती :)

ये शेर आज ही संस्‍कृति के चार अध्‍याय में पढ़ा अच्‍छा लगा सो आप भी सुनें

संस्‍कृति के चार अध्‍याय में वैसे तो काफी कविता है पर कुछ अच्‍छे शेर भी वहां पर हैं जो आनंद देते हैं गद्य के बीच में जब पद्य आता है तो उसका मजा ही अलग होता है और उस पर हम तो ठहरे कविता वाले लोग हम तो हर जगह कविता को ही ढूंढते हैं

तेरी बेइल्‍मी ने रख ली बेइल्‍मों की शान

आलिम-फाजिल बेच रहे हैं अपना दीन-ईमान

Saturday, 2 August 2008

मेरी दास्ताने-हसरत...

बुफ़े-दावत पे बुलाया गया हूँ,
प्लेटें दे के बहलाया गया हूँ,

न आई पर न आई मेरी बारी,
पुलाव तक बहुत आया-गया हूँ,

कबाब की रकाबी ढून्ढने को,
कई मीलों में दौड़ाया गया हूँ,

ज़ियाफ़त के बहाने दर-हक़ीक़त,
मशक़्क़त के लिये लाया गया हूँ...

Friday, 1 August 2008

नॉन-वेजीटेरियन शायरी

आज के मरदूद ज़माने में जहां नॉन-वेजीटेरियन भोजन महंगा होने के बावजूद खूब भकोसा और पसंद किया जाता है, दारू की दावतें नॉन-वेजीटेरियन भोजन के बिना "घासपात" दावत कहलाई जाती हैं, और नॉन-वेजीटेरियन लतीफ़े सुनाने वाले और बात करने वाले पुरुष और महिला क्रमशः स्मार्ट तथा मॉडर्न माने जाते हों, वेजीटेरियन की बातें करने का रिस्क उठा रहा हूं. पेश करता हूं एक टोटल वेजीटेरियन शायरी जो श्वानप्रेमी मानेखां गांधीं को कद्दुओं के ठेले समेत कद्दू पर ही समर्पित की जा रही है:

तू टिंडा है तू भिन्डियों की जीत पर यक़ीन कर
कहीं दिखे जो मुर्ग़ तो तू गाड़ आ ज़मीन पर.

... इस के आगे कोरस

(पोस्ट का टाइटिल एक ख़ास सस्ते मकसद से गलत लिखा गया है. क्योंकि सनसनी फैलाने का कॉपीराइट केवल महंगों के पास ही नहीं होता. एक रिक्वेस्ट: इस गीत को आगे ले जाने और पूरा करने की यात्रा में भाजीदार बनें)

अन्दाज़-ए-बयाँ कैसे कैसे...

कुछ रीपीट मार दिया हो तो माफ़ करें...

1. कौन कहता है प्यार में पकड़े जाएँगे,
वक़्त आने पर बहन-भाई बन जाएँगे!

2. मुहब्बत मुझे उन जवानों से है,
जो खाते-पीते घरानों से हैं......

3. दिल तो चाहा था तेरे नाज़ुक होठों को चूम लूँ,
पर तेरी बहती हुई नाक ने इरादा बदल दिया !

4. यूँ लड़कियों से दोस्ती अच्छी नहीं "फ़राज़",
बच्चा तेरा जवान है कुछ तो ख्याल कर !

5. लोग रात कहते हैं ज़ुल्फ़ों को तेरी,
तू सर मुँड़ा ले तो सवेरा हो जाये...

6. सुना है सनम के कमर ही नहीं,
खुदा जाने वो नाड़ा कहाँ बाँधते होंगे!

7. यूँ तो तुम्हारे हुस्न का हुक्का बुझ चुका है,
वो तो हम हैं कि मुसल्सल गुड़गुड़ाए जा रहे हैं।

8. मुझको ये नया ज़माना हैरत में डालता है,
जिसका गला दबाओ वो आँखें निकालता है !

9. लड़की वही जो लड़कियों में खेले,
वो क्या जो लौंडों में जाके दण्ड पेले!

और ये सियार-ए-आज़म-

10.हँसती थी हँसाती थी,
देखता था तो मुस्कराती थी,
रोज़ अदाओं से सताती थी,
एक अर्से बाद पता चला,
साली चूतिया बनाती थी!

Thursday, 31 July 2008

घुड़की जो दिखाओ...

ये एक मित्र ने सुनाई थी-

मेरा ये बौस हाय रे मर क्यूँ नहीं जाता,
सर पे खड़ा है सीट पर क्यूँ नहीं जाता,

जब सामने दारू है और हाथ में पत्ते,
तुम पूछते हो कि वो घर क्यूँ नहीं जाता,

फिर लाया इम्तिहान में तू मुर्गी का अन्डा,
ओ बेहया तू डूब के मर क्यूँ नहीं जाता,

दो-चार किलो सौंफ़ तो मैं फ़ाँक चुका हूँ,
दारू का मेरे मुँह से असर क्यूँ नहीं जाता,

झाँका जो एक बार उसकी माँ थी सामने,
उस दिन से मैं अपनी छत पर नहीं जाता,

सीखा है ज़ीस्त से सबक हमने ये यारों,
घुड़की जो दिखाओ तो बन्दर नहीं जाता...

Wednesday, 30 July 2008

श्वान हल्द्वानवी का बासी क़लाम

सायरी के अब्बू के अब्बू के अब्बू ... उर्फ़ कुमाऊंनी ज़ुबान में खुड़बुबू होते थे मरहूम मीर बाबा. आज देखिये हल्द्वानी का श्वान उनके दर पे क्या फैला आया. तमाम माफ़ीनामों के साथ पारी डिक्लेयर करते हुए कि ये लास्ट मुआफ़ीनामा ख़ुदा-ए-सुख़न के दर पे कह चुकने के बाद आज से किसी शायर-ओ-फ़ायर से न माफ़ी मांगूंगा न हाय अथवा बाय कहूंगा. सस्ता हूं सो सस्ता रहूंगा.

हम हुए, तुम हुए कि श्वान हुए
सस्ता कहने को ग़ज़लख़्वान हुए

-श्वान हल्द्वानवी

Monday, 28 July 2008

सौंदर्य वर्णन !

कल से दो दिन के लिये हैदराबाद जा रहा हूँ, चिरकिन मियाँ से मिलने, शाहिद कव्वाल से मिलने का भी प्रोग्राम है ( आप लोग शायद न जानते हों उन्हें, बहुत सस्ता लिखते हैं, पर तबीयत ज़रा रंगीन है, इसलिये उनके अशआर यहाँ नहीं लिख सकता) सोचा कोटा पूरा कर के जाऊँ। ये छप्पय देखिये...किस अलौकिक सौन्दर्य का वर्णन है-

एक नारी अपूरब देखि परी कटि है जेंहि की धमधूसर सी,
गज सुन्ड समान बने भुज हैं तामें अन्गुरी लगि मूसर सी,
प्रति अंग में रोम उगे तृन से अरु दीठी बिराजत ऊसर सी,
निसि भादव के सम केस खुले करिया मुख ताड़का दूसर सी..

जब से बेगम ने मुझे मुर्गा बना रक्खा है....

हक़ीम नासिर साहब से माफ़ी की गुज़ारिश के साथ,राम रोटी आलू के उन पाठकों को समर्पित,जो शादी-शुदा हैं (मैं छड़ा होने के नाते इस मज़े से नावाकिफ़ हूँ)-

जब से बेगम ने मुझे मुर्गा बना रक्खा है,
मैनें आँखों की तरह सर भी झुका रक्खा है,
बर्तनों आज मेरे सर पे बरसते क्यूँ हो,
मैनें तुमको तो हमेशा से धुला रक्खा है,
पहले बेलन ने बनाया था मेरे सर पे गूमड़,
और अब चिमटे ने मेरा गाल सजा रक्खा है,
खा जा इस मार को भी हँसकर प्यारे,
बेगम से पिटने में क़ुदरत ने मज़ा रक्खा है..

मुझ से कुत्तों सी मोहब्बत मेरी महबूब न माँग

इस ब्लास्फ़ेमी के लिए मुझे कोई मुआफ़ नहीं करेगा. पर क्या कीजिए हमें तो यूं भी ट्रबल और वूं भी ट्रबल. बाबा फ़ैज़, आप तो बुरा न मानना प्लीज़. बच्चे की नादानी है, सो माफ़ी की एप्लीकेशन भेजता हूं साथ साथ:

मुझ से कुत्तों सी मोहब्बत मेरी महबूब न माँग

मैं ने समझा था कि तू है तो कुकुरहाव है हयात
तेरा मुंह है तो ग़म-ए-मुर्ग़ का लफड़ा क्या है
अपने चूरन से है पेटों में भोजन का सवाद
तेरी चांपों के सिवा दुनिया में रक्खा क्या है
तू जो मिल जाये तो पड़ोसी की चूं हो जाये
मूं न था मैं ने फ़क़त चाहा था मूं हो जाये
और भी दुम हैं ज़माने में मुझ कुत्ते के सिवा
बोटियां और भी हैं बकरे की रानों के सिवा

मुझ से कुत्तों सी मोहब्बत मेरी महबूब न माँग

अनगिनत कुतियों के तारीक-ओ-लतीफ़ाना जिस्म
फ़ैशन-ए-आज-ओ-माज़ी के दुत्कारे हुये
जा-ब-जा भूंकते कूचा-ओ-बाज़ार में तमाम क़िस्म
बोटियां चाबते औ ना कभी नहलाये हुये
जिस्म पकते हुये अमरूद के सड़े कीड़ों से
मिर्च लगती हुई बाज़ार आई हूरों से
लौट जाती है उधर को भी नज़र क्या कीजे
अब भी जाहिल है तेरा श्वान मग़र क्या कीजे
और भी दुम हैं ज़माने में मुझ कुत्ते के सिवा
बोटियां और भी हैं बकरे की रानों के सिवा

मुझ से कुत्तों सी मोहब्बत मेरी महबूब न माँग

-श्वान हल्द्वानवी

Saturday, 26 July 2008

बम रहने दे!

पोपुलर मेरठी की कलम से-

मैं हूँ जिस हाल में ऐ मेरे सनम रहने दे
तेग़ मत दे मेरे हाथों में क़लम रहने दे
मैं तो शायर हूँ मेरा दिल है बहोत ही नाज़ुक
मैं पटाके ही से मर जाऊँगा, बम रहने दे

महबूब वादा कर के भी आया न दोस्तो
क्या क्या किया न हम ने यहाँ उस के प्यार में
मुर्ग़े चुरा के लाये थे जो चार "पोपुलर""
दो आरज़ू में कट गये, दो इन्तज़ार में"

और एक मुर्गे की कहानी-

जिस दिन हुआ पठान के मुर्ग़े का इन्तक़ाल,
दावत की मौलवी की तब आया उसे ख़याल,
मुर्दार मुर्ग़ की हुई मुल्लाह को जब ख़बर,
सारा बदन सुलग उठा, ग़ालिब हुआ जलाल,
कहने लगे खिलाओगे नरम गोश्त?
तुम को नहीं ज़रा भी शरियत का कुछ ख़याल
मुर्दार ग़ोश्त तो शरियत में है हराम,
जब तक न ज़िबाह कीजिये, होता नहीं हलाल,
फ़तवा जब अपना मौलवी साहब सुना चुके,
झुन्झला के ख़न ने किया तब उन से ये सवाल,
कैसी है आप की ये शरियत बताईये,
बंदे को कर दिया है ख़ुदा से भी बा-कमाल,
अल्लाह जिस को मार दे, हो जाये वो हराम,
बन्दे के हाथ जो मरे, हो जाये वो हलाल...

अब इसे क्या कहेंगे?

इसे चचा गालिब के पड़ोसी ने सुनाया था-

"बड़ी अम्मा के मरने पर बड़े किस्से बयाँ निकले,
जहाँ जहाँ क़बर खोदी,वहीं पे अब्बा मियाँ निकले"

स्टाक क्लीयेरेंस

तो आने वाला प्रोग्राम ऐसा है कि कुवैत की गर्मी से कुछ दिन का आराम लेकर साड्डा इंडिया के बरसात का मजा लेना है इसलिये आने वाले दिनो मे हरी हरी घास ,बहता हुआ पानी ,खेत ,हल ,तालाब, भैस ,कीचड ,स्कुल ,इत्यादि देखने का इरादा है इसलिये कंपोटर की खिटपिट बंद करने से पहले अपने पास बजा हुआ स्टाक क्लीयर करके हम अपने इस बोझ से मुक्त होना चाहते है तब प्रस्तुत है पहले स्टाक क्लीयेरेंस सेल का पहला माल !!

अल्लाह के घर से कुछ गधे फ़रार हो गये
उनमे से कुछ पकडे गये और कुछ अपने यार हो गये ॥

एक और ....

मेरा कुत्ता मुझसे रुठ गया
जाके गंदे नाले मे डुब गया
और डुबते हुये बोला
या अल्लाह अब ये ना सहेंगे
एक ही घर मे दो नही रहेंगे ॥

Friday, 25 July 2008

महाभारत स्टा‍इल

भिलाई छ्त्तीसगढ के एक खास हास्य कवि है श्री सुरेंद्र दुबे उनकी कुछ लाइने पेश कर रहा हुँ जो मुझे याद है ॥ संदर्भ यह है कि एक परिवार ने यह निश्चय किया कि जो भी कहेंगे महाभारत शैली मे कहेंगे !!अब सुबह का दृश्य है पत्नी पति को उठा रही है ॥

आर्य पुत्र उठीये अब तक शैय्या पर कैसे है
डार्लींग तुम्हारे पर्स मे चिल्हर पैसे है
सुबह से दुध वाला चिल्ला रहा है
चिल्ला-चिल्ला के हस्तीनापुर का सिहांसन हिला रहा है ॥

दुसरा सीन देखीये जब शादीशुदा लाला भिष्मपितामह की स्टाईल मे मर रहा है !!

मै जा रहा हुँ माते
बंद कर देना मेरे बैंक के चालु खाते ॥
मै दुर्योधन की हैंडराईटींग से डर रहा हुँ॥
शक्कर का व्यापारी हुँ,डा‍इबिटीज से मर रहा हुँ ॥

Thursday, 24 July 2008

रितेश की एक सस्ती ग़ज़ल

जो मिले उल्लू बनाते जाइये,
गुलों के भी गुल खिलाते जाइये,
शर्म की चादर उतारें,फेंक दें,
खूब गुलछर्रे उड़ाते जाइये,
शान से चाँदी का जूता मार कर,
काम सब अपने बनाते जाइये,
गर्ज़ हो तो बाप गधे को कहें,
अन्यथा आँखें दिखाते जाइये,
झाँकिये मत खुद गिरेबाँ में कभी,
गैर पर उँगली उठाते जाइये,
दिन नहीं बीड़ा उठाने के रहे,
शौक़ से बीड़ा चबाते जाइये...

आज फिर रिक्त स्थान की पूर्ति करें- अमा बदौलत शेर इलाहाबाद स्कूल का समझते हैं

अश्लील सोच वालों से तौबा... हिंट के लिए बता दूँ कि लफ़्ज बहुत छोटा है...



ऊऊऊऊऊऊऊऊ
ऊऊऊऊऊऊऊन
गूऊऊऊन
ऊऊऊऊऊन
ऊऊऊऊओन
ऊऊऊऊओन
ऊऊऊऊन
नमस्तुभ्यम..........
ऊऊऊऊऊऊऊऊऊम
ऊऊऊऊऊऊऊऊऊओम


रिक्त स्थान की पूर्ति करें---

सरकार ने जिस शख्स को जो काम दिया था
उस शख्स ने उस काम की माँ ----- के रख दी!

Tuesday, 22 July 2008

सस्ते शेर ने एक दुर्घटना टाली

अरबी महफ़ील मे मेरे हिन्दी दोस्त को गाना गाने कि तलब चढी मैने उसे यह अपराध करने से सज्जनता पुर्वक रोका कहा दोस्त आप गायेंगे तो लोग बेहोश हो सकते है ,पागल या उन्मादी हो सकते है ,भुकंप आने का भी खतरा है ,पर वह नही माना तो उसे तुरंत गढ कर एक ऐसा सस्ता शेर सुनाया कि उसने अपनी साबुत हड्डीयो के सदके अपनी यह जिद्द छोड दी इस प्रकार सस्ते शेर ने एक भयंकर दुर्घटना से बचाया ॥

तो पेशे खिदमत है वह गीता सार जो हमने अपने दोस्त से कही !!

हम तो दोस्त है
तुम्हारा गाना बजाना भी झेल जायेंगे
पर गर उन्होने तुम्हे बजा दिया
तो हम सिर्फ़ ताली बजाते रह जायेंगे

Sunday, 20 July 2008

हिन्दी बचाओ

युवक युवतीयो के अगाध अंग्रेजी प्रेम से क्षुब्ध ॥
एक युवक का भाषण सुनकर मै हो गया मुग्ध ॥

उसने हवा मे हाथ लहराया और जोरदार आवाज मे फ़रमाया ॥
लेडीस एंड जेंटलमेन इंडिया हमारी कंट्री और हम इसके सिटीजेन ॥

बट आज की यंग जनरेशन वेन‍एवर माउथ खोलती है ॥
तो ओनली एंड ओनली इंग्लीश बोलती है ॥

हमे इंग्लीश हटाना है हिन्दी फ़ैलाना है
तभी मेरे और भारत मां के सपने होंगे सच
थैंक्यु वेरी मच ,थैंक्यु वेरी मच ॥

Friday, 18 July 2008

अहमद फ़राज़ को श्रद्धांजलि


खिचड़ी ही सही कुछ तो पकाने के लिये आ,
आ तू ही मेरी दाल गलाने के लिये आ,
पहनी थी जिसमें कभी मैनें ही अंगूठी,
आ मुझको उसी उँगली पे नचाने के लिये आ,
तू भी तो कभी देख मेरे हाथों का जादू,
तू भी तो कभी मुझसे खुजाने के लिये आ,
रो रो के तेरी याद में टब भर दिये मैनें,
ऐ क़ह्त ज़दा अब तो नहाने के लिये आ...

Sunday, 13 July 2008

न हम झांकें न वो झांकें


अपनी खिड़की से वो झांके
अपनी खिड़की से हम झांके
लगा दो आग खिड़की में
न हम झांकें न वो झांकें


Saturday, 12 July 2008

शेर नम्बर ५००

सस्ते शेर की बुलंदियों को सलाम

पेश -ऐ- खिदमत है एक शेर यह शेर नम्बर/ पोस्ट नम्बर ५०० है पोस्ट के मुताबिक
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ख़ुद को कर बुलंद इतना,
की हिमालय की चोटी पे जा पहुचे !
और खुदा तुमसे ये पूछे,
अबे गधे अब नीचे उतरेगा कैसे !!
--शैलेन्द्र 

Friday, 11 July 2008

सस्ते शेर नहीं मिलते ....

पिछले कई दिनों से छाये सन्नाटे पर ...

राम खड़े हैं प्रतीक्षा में शबरी के बेर नहीं मिलते
इस मंहगाई के जमाने में सस्ते शेर नहीं मिलते ।

Tuesday, 8 July 2008

तसव्वुरात की परछाइयां

मरहूम साहिर लुधियानवी और गुरुदत्त से दण्डवत क्षमायाचना के साथ



मैं धूल फ़ांक रहा हूं तुम्हारे कूचे में
तुम्हारी टांग मरम्मत से दुखती जाती है
न जाने आज तेरा बाप क्या करने वाला है
सुबह से टुन्न हूं लालटेन बुझती जाती है

कुत्तों के सरदार की सायरी

उनकी गली के चक्कर इतने काटे, कि कुत्ते हमारे यार हो गए
वो तो हमें नहीं मिली, मगर हम कुत्तों के सरदार हो गए

रदी शेर पर एक और ज़्यादा रद्दी शेर ...

अशोक पांडे की पंक्ति "हो सके तो हर जगह मुमताज बनाते चलो" से प्रेरित ..

शाहजहाँ से उन की बेगम नाराज लगती है
क्यों कि हर मोहतरमा उन्हें मुमताज़ लगती है।
-

Monday, 7 July 2008

रद्दी शेर

एस एम एस से पाया करकट-

सफ़र लम्बा है बहुत, दोस्त बनाते चलो
दिल मिले या ना मिले हाथ मिलाते चलो
कंगलों से नहीं शाहों से बनता है ताजमहल
हो सके तो हर जगह मुमताज बनाते चलो

Sunday, 6 July 2008

शेर गौर फरमाए

शेर गौर फरमाए.............. की
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------------------बहार आने से पहले खिजा आ गई,
बहार आने से पहले खिजा आ गई, दो फूल खिलने से पहले बकरी खा गई । ।
--शैलेन्द्र 

Monday, 30 June 2008

एक बत्तखिया शेर !

अमा दीपक बाबू हम बराबर आपके आस पास हैं मगर बत्तख्बाज़ि में कुछ यूँ उलझे रहे के यहाँ लिखना न हो सका । बहरहाल , कुछ हज़रात आजकल हारमोनियम के साथ ऊपर वाले को टेर रहे हैं और इश्क हकीकी (नुक्ता चीं न करो फोनेटिक टाइप की दुनिया में ) में मसरूफ हैं और दुनियावी मोहब्बत याने जिसे इश्क मजाज़ी कहा गया है ,में मुब्तला हज़रात की भी कमी नहीं मग़र अपनी राह तो फ़क़त ये है , मुलाहिज़ा फरमाएं :
इश्क हकीकी से और न मजाज़ी से
हमें सरोकार ऐ रिंद फ़क़त बत्तख्बाज़ि से

Saturday, 28 June 2008

शेर कुछ ऐसे सुना था ...

दिल के अरमां आँसुओ मे बह गये
उसके बच्चे हम को मामु कह गये ।

मुनीश जी कहा है

साहिबान, कदरदान, मेहरबान पिछले कुछ दिनो से सस्ते शेर का जंगल "सतपुडा के उंघते अनमने जंगल" हो गया है .आप सबो की नजरे इनायत लाजिम है । मै एक शेर पढता हु माहौल बनाने के लिये फ़िर उसमे असली रंग तो अनुप जी ही भरेंगे हमेशा की तरह ॥तो मै शेर पढता हु ,हँसना है या रोना है ये साहिबान तय करे साथ ही ये आशा भी करता हु कि आप जरुर आयेंगे और अगर नही आयेंगे तो ये बताने आयेंगे कि आप नही आयेंगे ॥




मेरे दील के अरमा आँसुओ मे बह गये ॥
हम गली मे थे गली मे रह गये
कमबख्त ला‍इट चली गयी वक्त पे
जो बात उनसे कहनी थी उनकी मम्मी से कह गये॥

Friday, 27 June 2008

पेश-ऍ-खिदमत है सास-बहू वाला शेर-


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&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&& अब लीजिये...



सुना है सास को आज इक बहू ने पीट दिया


तो इस खबर पे ये हंगामा चारसू क्या है


मियाँ से लड़ने झगड़ने के हम नहीं क़ाइल


जो सास को ही न ठोके तो फिर बहू क्या है।


(शायर: दिलावर फ़िगार)

Wednesday, 25 June 2008

छोटी सी ये सीख

गर होना है प्यारे दुनिया मे प्रसिद्ध ॥
गाठबांध ले अपनी छोटी सी ये सीख ॥
हाथी पर शिर्षासन लगा और फ़ोटो खींचा ।
उस फ़ोटो को उल्टा कर और दुनिया को दिखा ॥

Tuesday, 24 June 2008

सस्ती रातें

मैने आज ही ये सस्ती सी तुकबन्दी की लेकिन ये इतना छोटा सा शेर बना कि इसे पढ़वाने से पहले मुझे समझाना पड़ रहा है। आजकल मंहगाई कुछ ज्यादा ही बढ़ गयी है, दिन में आफिस जाओ तो गैस (पैट्रोल) का खर्च, दिन में ही दुकानें खुली रहती है इसलिये कभी ये लो कभी वो, अलग-अलग तरह के खर्च। रात होने पर इस तरह की चीजों की चिंता नही। इसलिये अर्ज किया है -

सस्ते शेर, सस्ती बातें
मंहगें दिन, सस्ती रातें।


इस शेर से पहले, मैं शब्दों के साथ कुछ और लिखने के लिये हाथापाई कर रहा था। थोड़ी सी धीकामुस्ती के बाद शब्दों को जब ठेला तो वो कुछ इस तरह से इकट्ठे हो गये (खाने की टेबल पर लेट पहुँचने वाले सभी मर्दों को समर्पित) -

तुस्सी ग्रेट हो जी,
कोरी एक स्लेट हो जी,
जल्दी से प्लेट लाओ
खाने में लेट हो जी।

Sunday, 22 June 2008

पेले खिदमत है एक उड़ाया हुआ सस्ता शेर

पेले खिदमत है एक उड़ाया हुआ सस्ता शेर
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माथे पे पसीना था सिर पे रेत था
'डार्लिंग' ने फूल फेका गमले समेत था

Friday, 20 June 2008

चंद शब्द चुनकर लाया हूँ

सस्ते शेर के सस्ते श्रोताओं को एक सस्ता सा सलाम, इस कलाम की कहानी कुछ वैसी ही है जैसी 'तिल बना रहे थे, स्याही फैल गयी' की। मुलाहयजा फरमायें -

शेर तुम, गजल तुम, गीत और कविता भी तुम
चंद शब्द चुनके लाया था, जाने कहाँ वो हो गये गुम।

कोई आंखों पे गुनगुनाता है, कोई मंदिर में जा सुनाता है
'तरूण' ये सुखनवरों की बस्ती है, यहाँ हर शब्द दिल को भाता है।

चलो तुम मीर बन जाओ, गालिब का तख्ल्लुस मैं ले लूँ
शब्दों के फूल तुम चुनो, और मैं उन से माला बुन लूँ।

ऊपर की इन लाईनों को आज छापने से पहले थोड़ा दुरस्त किया गया है, वैसे ये कई हफ्तों से किसी लावारिस पेपर में लिखी घर के किसी कोने में पड़ी थी, आज नजर गयी तो जैसे इनको भी इनका खोया चांद मिल गया। दुरस्त करने से पहले का ड्राफ्ट वर्जन कुछ ऐसे था -

शेर तुम, गजल तुम, गीत और कविता भी तुम
बहुतों ने करी कोशिश, सीधी ना कर पाये कुत्ते की दुम।

कोई आंखों पे गुनगुनाता है, कोई मंदिर में जा सुनाता है
'तरूण' ये सुखनवरों की बस्ती है, आ तू भी अपना आशियाँ यहाँ बुन।

चलो तुम मीर बन जाओ, गालिब का तख्ल्लुस मैं ले लूँ
सस्ते शेरों की ये दुनिया सही, यहाँ शायर कभी नही होते गुम।

Wednesday, 18 June 2008

कर दिया इज़हार-ए-इश्क


एक वास्तव में सस्ता शेर हाज़िर है ..

कर दिया इज़हार-ए-इश्क,
हम ने टेलीफ़ोन पर
लाख रुपये की बात थी,
दो रुपये में हो गई ।

Monday, 16 June 2008

zaraa gaur farmaaye.n

arz hai

ikhattar bahattar tihattar chauhattar


ikhattar bahattar tihattar chauhattar


pichahattar chhiyattar satattar athattar

Thursday, 12 June 2008

ग़ालिब का एक अवधी अनुवाद

नक़्श फ़रियादी है किसकी शोख़ी-ए-तहरीर का,
काग़ज़ी है पैरहन हर पैकर-ए-तस्वीर का .

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इसे अवधी में पढिये-

वस्तर पहिरे कागद केरा, चित्र एक-एक चिल्लाय,
कवने ठगवा अपनी कलम से हमको अइसन दियो बनाय

जूते उतार के .....

अभी हाल ही में एक मंदिर में सम्पन्न हुए कवि सम्मेलन के दौरान जन्मा ये शेर हाज़िर है :

आलू, अंडे और टमाटर की बौछार के बाद

हमारे कवि मित्र सुरक्षा का आभास पाते हैं,
मंदिर में होने वाले कवि सम्मेलन में

श्रोता जूते उतार के आते हैं ।

Monday, 9 June 2008

अर्ज़ किया है......

वो मेहरबान भी हुए हमपे तो इस तरह.....

वो मेहरबान भी हुए हमपे तो इस तरह.....

मरहम लगाया ज़ख्म पर खंजर के नोक से

Sunday, 8 June 2008

कमबखत बादल छाए हैं


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आज बारिश का शेर ।।

वाह वाह भाय बादल छाए हैं ।
वाह वाह भाय बादल छाए हैं ।
वाह वाह भाय बादल छाए हैं ।
अबे चुप कमबखत चेक कर
हमने अपने छाते सिलवाए हैं ।

Saturday, 7 June 2008

जिन आंखों पर हैं आशिक

आंखें क्या-क्या न देखें और क्या-क्या न दिखायें
यहां तो बस पार उतरें वही जो इनमें डूब-डूब जायें

और इसके लिये डरना मना है
क्योंकि
इस बाबत एक नेक सलाह
अपने प्यारे बाबा मीर तकी़ 'मीर' दे गए हैं
आइए देखें-

क्या घूरते हो हरदम डरते नहीं हैं कुछ हम
जिन आंखों पर हैं आशिक उन आंखों के दिखाये!

जुते खो गये

उन्होने फ़रमाया कि महफ़ील मे जुते खो गये अब घर कैसे जायेंगे ॥
हमने कहा आप शेर शुरु तो किजिये इतने बरसेंगे आप गिन नही पायेंगे ॥

'सस्ता शेर' की पिछली त्रिवेणी पढ़कर यह शेर-



इस प्रकार के शेरों का रचयिता शायद कोई व्यक्ति नहीं बल्कि समाज होता है और इससे उस समाज का इथोस झलकता है. मूल दोहा है- माटी कहे कुम्हार से... आप सब जानते ही हैं. अब इसे पढ़िये....-----------------------------
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कच्छा बोला धोबी से, तू क्यों पीटे मोहि
अगर कहीं मैं फट गया, पिटवाऊंगा तोहि.

Friday, 6 June 2008

SMS वाला शेल

एक दोस्त ने भेजा जब मैंने उसकी फ़ोन कॉल का जवाब नही दिया :-
पेले खिदमत है एक SMS वाला शेल

उनके लिए जब हमने भटकना छोड़ दिया,
याद में उनकी जब तडपना छोड़ दिया !!
वो रोये बहुत आ कर तब हमारे पास,
जब हमारे दिल ने धड़कना छोड़ दिया !!


भई ! सस्ते शेर लिखते लिखते सोचा क्यो न आज एक सस्ती त्रिवेणी लिखी जाए तो पेले खिदमत है जयपुर के चांदपॉल बाज़ार में मिलने वाली सस्ती त्रिवेणी ....


तेरे भाइयो ने मुझे ऐसे पीटा


जैसे हू मैं कोई कच्छा धारीदार



बस धोया भिगोया और हो गया..

या ले के जाओगे ...


सागर खैयामी साहब का एक नायाब कता ....
गौर फ़रमाइये ...



बोला दुकानदार कि क्या चाहिये तुम्हे
जो भी कहोगे मेरी दुकाँ पर वो पाओगे
मैनें कहा कि कुत्ते के खाने का केक है
बोला यहीं पे खाओगे या ले के जाओगे

Wednesday, 4 June 2008

नियम के प्याले टूट गये






आया कलयुग झूम के यारो ,नियम के प्याले टूट गये ॥
जो रिश्‍वत देते पकडे गये वो रिश्‍वत देके छूट गये ॥

Tuesday, 3 June 2008

बहुत ही सस्ता

बहुत ही सस्ता शेर .....किसी ट्रक के पीछे लिखा था

गाड़ी चलाने से पहले हैंडिल देख लेना

...

गाड़ी चलाने से पहले हैंडिल देख लेना

...

लड़की छेड़ने से पहले सैंडिल देख लेना

Monday, 2 June 2008

गोबर की गुणवत्ता

सस्ता शेर मंडली के द्वारा जनहित मे जारी .. आवश्यक सुचना


इस वर्ष बोर्ड के पेपर भैस ने खा लिये है अब विद्यार्थियो को गोबर की गुणवत्ता के आधार पे नंबर दिया जायेगा ..

और अंत मे एक सस्ता विज्ञापन ...

उसकी याद मे हम सारी-सारी रात पीते रहे
कलेजा फ़ट कर बाहर आ गया उसे दिन भर सीते रहे

(वर्तनी की गलती अशोक जी के निर्देशानुसार सुधारी गयी है )

Sunday, 1 June 2008

मैंने कब तारीफ़ें की हैं, उनके बांके नैंनों की

सस्ता है या महंगा, साहेबान तय कर लें. अहमद नदीम क़ासमी साहब ने यूं भी फ़रमाया है एक जगह:

देख री, तू पनघट पै जाके मेरा ज़िक्र न छेड़ा कर
क्या मैं जानूं, कैसे हैं वो, किस कूचे में रहते हैं
मैंने कब तारीफ़ें की हैं, उनके बांके नैंनों की
"वो अच्छे ख़ुशपोश जवां हैं" मेरे भय्या कहते हैं

Thursday, 29 May 2008

पेश-ए-खिदमत है एक एसएमएस वाला शेरनुमा कुछ-


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ख्वाब मंजिल थे और मंजिलें ख्वाब थीं, रास्तों से निकलते रहे रास्ते,
जाने किस वास्ते....

जाने किसकी तलाश उनकी आंखों में थी,
आरज़ू के मुसाफिर भटकते रहे,
जितने भी वे चले उतने ही बिछ गए,
राह में फासले...

Monday, 26 May 2008

जेब से पौव्वा निकला

जिसे कोयल समझा वो कौव्वा निकला
आदम कि शकल मे हौव्वा निकला
हमे जो पिने से रोकते रहे शराब
आज उन्ही के जेब से पौव्वा निकला

Saturday, 24 May 2008

'फिक्र' ददा माफ़ करना

फिक्र ददा माफ़ करना
एक बहुत पुराना किस्सा कही सुना था फिक्र दद्दा के बारे मे। बहुत अच्छे शायर थे (है ?)। किसी ने उन्हे कहा की आपका बेटा जो बाहर पढ़ने भेजा हुआ है आज कम पढ़ाई मे कम और इश्क मे ज्यादा मसरूफ है । फिक्र साहिब गए वहाँ पर लड़का नही मिला। उन्हे आईडिया आया और वोह उस लड़की के पीछे हो लिए इस उम्मीद मैं की कभी न कभी तो लड़का इससे मिलने आयेगा । काफी देर पीछा करने पर लड़की को भी कुछ अहसास हुआ की एक बुड्ढा उसका पीछा कर रहा है । मामला कही उल्टा न पड़ जाए यह सोच कर फिर्क ने कुछ इस तरह मामला सुलझाया :-

फ्राक वाली ये 'फिक्र' नही तेरी फिराक मे !
यह तो ख़ुद है उसकी फिराक मे जो है तेरी फिराक में !!
--शैलेन्द्र 
बागों मे कभी चमेली तो कभी गुलाब होगा
तुमसे शादी करेगी वह जिसका दिमाग खराब होगा
कुछ तकनीकी वजुहात के चलते नीचे छापा शेर इरफान ने reschedule किया और इक कमबखत लोचा हो गया । दरअसल ये शेर ऐसे था:
शिमले से भी ठंडे हैं तेरी जुल्फ के साए
अब काटेंगे वहीं आके मई जून वगैरा

ये शेर दो अदद दादों से नवाज़ा गया साहब मगर लोचे में वो जाती रहीं ,बहरहाल साइड बार में महफूज़ पाई जाती हैं।

Friday, 23 May 2008

जनाब a.a. barqi से सुना शेर!


शिमले से भी ठंडे हैं तेरी जुल्फ के साए
काटेंगे वहीं आके मई जून वगैरह !

स्टार टी वी के हर दर्शक के दिल का शेर..



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बोतल में बोतल बोतल में पानी...
कब तक रोएगी ये तुलसी वीरानी...

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सरकार के चार साल हो गए।
मनमोहन के मन की हो गई।

अमर सिंह से प्रेम का तार जूडा।

अर्जुन भी सोनिया के हो गए ।

साथ बैठे खाने पर

गिले शिकवे भूल गए

अगले साल चुनाव है

सब आओ इनके गले लग जाओ ।

कुछ लोग हँसते हैं ,
कुछ लोग रोते हैं
कुछ ऐसे भी लोग हैं
जो न हँसते हैं, न रोते हैं ,
वो लोग सस्ते शायर होते हैं

कितना भीगे तुम

पाँच दिनों की बारिश ने खुऊब भिगोया।
इतना भिगोया की सब भीग गए।
जो सूखे रह गए , उन्हें पता ही नही चला कि दिल्ली में बारिश भी हुई ,

धोबी, गदहा और धोबिन संबन्धी एक शेर-

भाई रवि रतलामी की १६ मई २००८ को ७ बजकर ३ मिनट पर ब्लॉगवाणी में नज़र आयी पोस्ट ''तीन साल पहले के हिन्दी चिट्ठाकार और उनकी चिट्ठियाँ" से उड़ाया और उस पोस्ट में फुरसतिया जी द्वारा प्रकाश में लाया गया एक शेर- (उफ्फ़! साँस फूल गयी!!!!!!)-

तो शेर अर्ज़ है कि ...



धोबी के साथ गदहे भी चल दिये मटककर,
धोबिन बिचारी रोती, पत्थर पे सर पटककर।

Thursday, 22 May 2008

मैथ मैटिक पिटाई

मैने तुझे प्यार किया तेरे बाप ने मुझे पीटा।
मैने तुझे प्यार किया तेरे बाप ने मुझे पीटा।
Sin theta by cos theta is equal to tan theta

--शैलेन्द्र 

हाले गुलिस्ता क्या होगा

नष्ट भ्रष्ट नेताओ के नाम हमारा प्रेम पत्र..........





एक उल्लु ही काफ़ी है गुलिस्ता खाक करने को "
हर साख पे उल्लु बैठा है अब हाले गुलिस्ता क्या होगा ॥

वो नादान है दोस्तो

वो हमारा इम्तेहान क्या लेगी,
मिलेगी नजर तो नजर झुका लेगी
उसे मेरी कब्र पर दिया जलाने को मत कहना
वो नादान है दोस्तो अपना हाथ जला लेगी

ज़िन्दगी की राहें मुश्किल हैं तो क्या हुआ

ज़िन्दगी की राहें मुश्किल हैं तो क्या हुआ
थोड़ा सा तुम चलो, थोड़ा सा हम ...







फिर रिक्शा कर लेंगे

(आज सुबह मिला एक एस एम एस)

Tuesday, 20 May 2008

Well Played !!!

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आप ने मेरे मन से खेला
आप ने मेरे धन से खेला
आप ने मेरे तन से खेला
ख़ैर,Well Played !!!

कोइ बम फ़ट जाये

जयपुर धमाके मे काल-कलवित हुये लोगो को विनम्र श्रधांजली के साथ !!





दीपक सोच-विचार के घर से निकलो भाय ।
ना जाने किस मोड पे कोइ बम फ़ट जाये "

Monday, 19 May 2008

चलो पिच्चर चलें

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तुम आ गए हो,
नूर आ गया है,
चलो तीनों पिक्चर चलें !!!!

शेर कहता हु मै !

शेर कहता हु मै जरा गौर से सुनो
मुझे नही आता किसी और से सुनो



हाथ उनके उठे थे मदद के लिये ही लेकिन"
साहिल ने उसे सलाम ए अलविदा समझा "

Sunday, 18 May 2008

एक नये शायर की संभावना

मित्रो!
एक नये शायर शैलेंद्र यादव सस्ते शेरों का दरवाज़ा खटखटा रहे हैं। बानगी पर नज़र डालिये और कहिये कैसे लगे?

शादी से पहले

तकदीर है मगर किस्मत नही खुलती
ताज तो बनवा दु मगर मुमताज नही मिलती
शादी के बाद
तकदीर तो है मगर किस्मत नही खुलती
ताज तो बनवा दु मगर मुमताज नही मरती

सस्ते शेर की पहली कोशिश


चाल ज़रा तेज़ है,

अच्छाई से ना परहेज़ है,

पोज तो ऐसे देती है,

जैसे हर जगह स्टेज है।

Saturday, 17 May 2008

शक O' शुबहे का शेर



सूरत की तो वो बुरी नहीं औ' सीरत हमारी भी नेक है
जाने क्यों दिल कहता है मगर की वो ' ब्लॉग I.D.' फेक' है !

Friday, 16 May 2008

महंगाई के दौर में एक और फुटपाथ पे मिलने वाला सस्ता शेर


महंगाई के दौर में एक और फुटपाथ पे मिलने वाला सस्ता शेर



जिन्हे समझा था सस्ता थे शेर बड़े वो महँगे...
जिनसे अंखिया लड़ाई थी हमने यार निकले वो भेंगे

Thursday, 15 May 2008

पेल-ए-खिदमत है एक घिसा-पिटा शेर:-

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(पिछली मर्तबा ससुरा ऊपर ही नज़र आ गया था, अबकी गहरे दफ़न किया है)....
तो शेर अर्ज़ है-


अजब तेरी दुनिया, अजब तेरा खेल,
छछूंदर के सर पर चमेली का तेल।

Tuesday, 13 May 2008

महंगाई मार गयी

एकदम सच्ची बात फ़िराक गोरखपुरी कि कलम से ..........

घर लौट के बहुत रोये मा बाप अकेले मे
मिट्टी के खिलौने भी सस्ते नही थे मेले मे

सस्ता शेर समंदर है

सस्ता शेर एक समंदर ,नदिया पढ पाता हुँ "
बाल्टी भर याद रहता है ,मग भर लिख पाता हुँ"
इस महफ़ील मे कँजुस बहुत है लोग ।
तभी तो चुल्लु भर दाद पाता हुँ ।

और अभी मुनिष जी और विजय भाई के लिये खास पेशकश गुरुरब्रह्मा कि तर्ज पर
गुरु "रम "हा ,गुरुर विस्की ,गुरुर "जीन "एश्वरा "
गुरुर साक्षात पेग ब्रह्मा ,तस्मै श्री "बियरे" नमः

भगवान आपको सदा टुन्न रखे "

और अब आखरी है इसे भी झेल लिजिये...

कोइ पत्थर से ना मारे मेरे दिवाने को "
बम से उडा दो साले पैजामे को "

Monday, 12 May 2008

आपको देखकर !!

सूरज किरणे बिखेरता है !

आपको देखकर !!

फूल खुशबू छोड़ता है !

आपको देखकर !!

हम अपने दिल की क्या कहें !

हज़ारों दिल धड़कते हैं !!

आपको देखकर !!!

Sunday, 11 May 2008

एक पव्वा रम तो है, हरगाम हमन अफ़ोर्ड

एक पव्वा रम तो है, हरगाम हमन अफ़ोर्ड
पैसे की काहे फिर तुमन दिखलाओ हो तड़ी

मैं अकेला ही चला था जानिबे मंज़िल मगर

मैं अकेला ही चला था जानिबे मंज़िल मगर
लड़कियां हंसती रहीं और चूतिया कटता गया


(आशुतोष उपाध्याय को नैनीताल की खचुवाई हुई स्मृतियों के साथ सादर)

पेश है एक प्रेमीपुंगव का एसएमएस वाला शेर

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एक अजीब-सा मंज़र नज़र आता है
हर एक कतरा समंदर नज़र आता है
कहाँ जाकर बनाऊं मैं घर शीशे का
हर एक हाथ में पत्थर नज़र आता है.

Saturday, 10 May 2008

कभी कभी मेरे दिल मे ख़याल आता है
की ज़िंदगी तेरी जुल्फों के साए मे गुजरती
.तोः
..तोः

मुझे भी जुओं की शिकायत होती

पैरोडी ..... वो पास रहें या दूर रहें .....

इस आई टी युग में पेश-ऐ-खिदमत है एक पैरोडी बतर्ज़ वो पास रहें या दूर रहें .....

वो मेल करें चाहे न करें हम आस लगाए रहते हैं
इतना तो बता दे कोई हमें, क्या ..........
रिप्लाई देने मे लेज़ी वो
हफ्तों तक बात नही होती
अब तो आलम ये के ख्वाबों में
हम चैटिंग करते रहते हैं

वो मेल करें चाहे न करें हम आस लगाए रहते हैं
इतना तो बता दे कोई हमें, क्या ..........

मेलबॉक्स हमारा खाली है

हम जानते तो है हाय मगर

जब तक नेट कनेक्ट न हो जाए

हम माथा पीटते रहते हैं

Friday, 9 May 2008

तुम्हारा घर जलाना चाहता हूँ .....

गिरगिट ’अहमदाबादी’ जी की एक गज़ल स्म्रूति से दे रहा हूँ , कितनी सस्ती है इसका फ़ैसला आप खुद करें । कुछ बरस पहले एक मुशायरे में सुनी थी, यदि गलती हो तो सुधारें :


अंधेरे को मिटाना चाहता हूँ
तुम्हारा घर जलाना चाहता हूँ

मै अब के साल कुरबानी करूँगा
कोई बकरा चुराना चाहता हूँ

नई बेगम ने ठुकराया है जब से
पुरानी को मनाना चाहता हूँ

और अंत में मेरा सब से पसंदीदा शेर :

मेरा धँधा है कब्रें खोदने का
तुम्हारे काम आना चाहता हूँ


Wednesday, 7 May 2008

दीपक रुपिया राखिये

रहिम जी कहते थे !!
रहिमन पानी राखिये बिन पानी सब सुन
पानी गये ना उबरै मोती ,मानुष चुन "

पर मुझे लगता है अब इसकी व्याख्या बदल गयी है और इस दोहे को भी modify कर देना चाहिये तो नेकी और पुछ पुछ !!
ये काम हम ही कर देते है मै अपनी कहता हू आप अपनी कहियेगा ...

दीपक रुपिया राखिये बिन रुपिया सब बेकार "
रुपिया बिना ना चिन्हे बॆटा , नेता ,यार "

Monday, 5 May 2008

कलजुग में दारू मिली

रामजनम मे दूध मिला ,कृषण जनम मे घी /
कलजुग मे दारू मिला सोच समझ कर पी //

शेर नंबर 420

ख्वातीनो हजरात आज सस्ते शेर ने ४२० न. का आकडा छु लिया है और यह ४२० नंबरी शेर पढने का हसीन मौका हमे मिल
गया है । किसी ने सही कहा है अल्लाह मेहरबान तो गधा पहलवान "

हमारी तरह शेर पढो ,नाम हो जायेगा "
अँडे टमाटर बरसेंगे खुब
सुबह के नाश्ते का इंतजाम हो जायेगा "

तो शेर अर्ज है भगवान राम तुलसी दास और उनके चेले चपाटो (जिनमे मै भी शामील हूँ)से क्षमा प्रार्थना के साथ....

चित्रकुट के घाट पर भये पँचर के भीड "
तुलसीदास पँचर घीसे हवा भरे रघुवीर

ज़िन्दगी में हमेशा नये लोग मिलेंगे..............

ज़िन्दगी में हमेशा नये लोग मिलेंगे
कहीं ज़्यादा तो कहीं कम मिलेंगे
ऐतबार ज़रा सोचकर करना
मुमकिन नहीं, हर जगह तुम्हें हम मिलेंगे

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लोग अपना बना के छोड़ देते हैं
रिश्ता गैरों से जोड़ लेते हैं
हम तो एक फूल भी न तोड़ सके
लोग तो दिल भी तोड़ देते हैं

दहेज मांगोगे तो....

दोस्तो, ये शेर चश्मदीद गवाह होने का नतीजा है. दरअसल हमारे एक मित्र दूल्हा बन जब अपनी बारात ले कन्या (अब हमारी भाभी) के दर पर पहुंचे तो दीवार पर एक ख़तरनाक शेर लिखा देखा. मामला बिगड़ते-बिगड़ते बचा. आनन-फानन में यह शेर दीवार से मिटा दिया गया. बाद में पता चला कि यह दूल्हे मियाँ की उन 5 सालियों की करतूत थी जो सनी देओल की जबरदस्त फैन थीं और 'ग़दर' फ़िल्म के गहरे असर में थीं. शेर मुलाहिजा फ़रमाइए:-

दूध मांगोगे तो खीर देंगे,
दहेज मांगोगे तो चीर देंगे.

Saturday, 3 May 2008

मयखाने का असर

शेर छुप कर शिकार नही ्करते,बुज्दील सीने पे वार नही करते "
हम बेधडक पेलते जाते है शेर ,हम दाद का इंतजार नही करते "

तो आप सबो के लिये आदाब बजा के लाता हूँ, अपनी औकात पे आता हूँ और फ़रमाता हूँ !!

गर हिम्मत है तो ताज महल को हिला के देख "
नही है तो आ बैठ दो पैग मार "
और ताज महल को हिलता हुआ देख "
इस जीवन में प्यारे गर होना है तुझे सफल
लोग पकौडे तलें तेल में, तू पानी में तल
मुझको मेरी नज्म सूना के, वह मुझसे हो बोले
कहिये कैसी लगी आपको मेरी ने ग़ज़ल

Friday, 2 May 2008

न जाने किस गली में ...


मोहब्बत हो गई है डाकु सुल्ताना की बेटी से
न जाने किस गली में ज़िन्दगी की शाम हो जाये ।

अबे देखता क्या है..

नमस्कार दोस्तो..

पेले खिदमत है यारो शेर मेरे सस्ते
महँगाई के दौर में भी है ये हंसते..

अब तक सस्ती टिप्पणिया ही देता रहता था.. सोचा इस महँगाई के दौर में आप लोगो को थोड़ी राहत तो दे ही दु... कुछ सस्ते शेरो से तो पेले खिदमत है हमारा पहला सस्ता शेर...



"इंसान की शॅक्ल में खड़ा है भालू...
अबे देखता क्या है ये है राम रोटी आलू.."

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इक गीदड़भभकी वाला शेर, इझा आईला!

भाइयो, अबकी गीदडभभकी नहीं; दुर्घटनावश मंहगा शेर हो गया है क्योकि भाई रवीश के बाद अब रवि रतलामी भी हमारे दीदा-ओ- दाद-ए-परवर हैं. उनसे हमारा पिछले जन्म (ब्लॉग से पूर्व) का नाता नहीं है.
शेर मर्ज़ किया है के-


अभी देहली में आके हम पूरा इक ड्रम पी जावैंगे,
फिर उगने 'भास्कर' तक पूरा 'हिन्दुस्तान' देखेगा।


-विजय ड्रमसोखवी। (ऋषि अगस्त्य का वंशज हूँ. हाँ!)

इरफ़ान भाई, ५ बोतल पीके ट्राई किया है. कम हो गया है तो बताइए. और २-४ लीटर और जमा लूँ.

आखिर को शेर सस्ता ही निकला. लाहौल विला कुव्वत!

Thursday, 1 May 2008

रवि रतलामी ने भेजी दैनिक भास्कर की कतरन


अभी पिछले ही हफ्ते दैनिक हिंदुस्तान का एक कॉलम सस्ता शेर को समर्पित था और आज भाई रवि रतलामी ने मुझे दैनिक भास्कर की एक कतरन भेजी है जिसका भी एक स्तंभ सस्ता शेर के नाम किया गया है। हमने रवि भाई को आपकी तरफ़ से आभार और अपनी तरफ़ से आमंत्रण भेज दिया है. इन दोनों अख़बारों की तारीफ़ में एक क़सीदा तो काढिये भाई विजयशंकर!



कतरन को ठीक से पढने के लिये कर्सर उस पर ले जाकर डबल क्लिक कीजिये.

अब पेल-ए-खिदमत है 'थ्योरी ऑफ़ मिसेज/मिस. अंडरस्टैंडिंग' का शेर:-

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पिस्टल से आम तोड़ दें, निशाना अचूक था,
पर आ गिरी बटेर, क्या ग़ज़ब का फ्लूक था.
हम समझे थे सड़क पे सिक्का पड़ा हुआ है
नज़दीक जाके देखा, तो बेग़म का थूक था।
-विजय चित्रकूटवी

थियोरी ऑफ रिलेटिविटी का तीसरा शेर


अभी तक आपने थियोरी आफ रिलेटिविटी के दो शेर सुने ।
आइंस्‍टीन ने थियोरी ऑफ रिलेटिविटी यानी सापेक्षता का सिद्धान्‍त
किन अवलोकनों के सहारे दिया था, हम नहीं जानते ।
लेकिन थियोरी ऑफ रिलेटिविटी की वैज्ञानिक शायरी करते हुए
'रेडुआई शेर' को मज़ा आ रहा है ।
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मिलो ना तुम तो हम घबराएं, मिलो तो आंख चुराएं ।
मिलो जो तुम तो भी घबराएं तो भी आंख चुराएं ।।
हमें क्‍या हो गया है ।।
अरे क्‍या हो गया है ।।

*चित्र साभार : www.artists.org से ।

Wednesday, 30 April 2008

जिनके पास कुछ भी नहीं,उनसे दुनियाँ जलती है

जिनके पास कुछ भी नहीं

उसपे दुनियाँ हँसती है,

जिसके पास सब कुछ है

उससे दुनियाँ जलती है,

आपके पास हमारी दोस्ती है,

जिसे पाने के लिये पूरी दुनियाँ तरसती है !!

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दिल तो अरमानों से हाउसफ़ुल है !

पूरे होंगे या नहीं, ये डाउटफ़ुल है !!

यूं तो दुनिया में हर चीज़ वन्डरफ़ुल है !

पर ज़िन्दगी, आप जैसे दोस्तों से ही ब्यूटीफ़ुल है !!